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संस्कृति का गला घोंटते कट्टरपंथी

१३ फ़रवरी २०१५

असली राम और रामलीला के रामों में बड़ा फर्क है. वीएचपी, बजरंग दल और अखिल भारतीय हिन्दू महासभा जैसे संगठन रामलीला के पात्रों जैसे हैं, जो अपने अभिनय को हकीकत समझने लगते हैं.

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तस्वीर: AP

"पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय. ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय." ये दोहा कबीर का है, जिन्होंने हिन्दू और इस्लाम धर्म में मौजूद कुरीतियों पर कड़ा प्रहार किया. असल में कबीर भारत की उस संत परंपरा की कड़ी हैं जो वैभव के बजाए प्रेम, करुणा, सत्य और आत्मीय आनंद तलाशने पर जोर देती है. और यही भारतीय संस्कृति की आत्मा भी है.

लेकिन हिन्दुत्व की हुंकार भरने वाली अखिल भारतीय हिन्दू महासभा को यह बात समझ नहीं आती. 14 फरवरी को वैलेंटाइंस डे के दिन यह संगठन प्रेमी जोड़ों की जबरन शादी कराने निकल पड़ा है. युवावस्था में आकर्षण होना या प्रेम होना, यह स्वाभाविक प्रक्रिया है जो महासभा को मंजूर नहीं.

विरोध के नाम पर इन संगठनों के नेता पहले इतिहास को तोड़ मरोड़कर या दूसरी सभ्यता को बदनाम कर जनमानस को बरगलाते हैं. असल में ये वो लोग हैं जो भारतीय संस्कृति की पोथी रट चुके हैं लेकिन उसका सार नहीं समझ पाए.

ये राम राम करते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि एक राजा अपने दो किशोर बच्चों को जंगल भेज देता है ताकि वो एक मुनि की रक्षा कर सकें. उसी दौरान एक युवती अपने पिता से कहती है कि वह विवाह उसी व्यक्ति से करेगी जो यह धनुष तोड़ेगा. स्वयंवर हुआ. राजकुमारों को रक्षा और शिक्षा के लिए जंगल में भेजना बताता है कि राजा स्वयं नियम से ऊपर नहीं था. स्वयंवर बताता है कि महिलाएं कितनी स्वतंत्र थीं.

पौराणिक कहा जाने वाला साहित्य राजाओं या राजकुमारों के गंधर्व विवाह के किस्सों से भरा हुआ है. शिकार खेलते खेलते, पानी पीते पीते राजकुमार एक आम युवती के प्रेम में पड़ गए. शुक्र है कि तब वहां हिन्दू महासभा मौजूद नहीं थी, वरना राजकुमार और युवती की पिटाई जरूर हो जाती. महासभा के डर से शायद कृष्ण भी गोपियों के करीब मुरली नहीं बजा पाते और न ही मुरली मनोहर कहलाए जाते.

असल में आधुनिक भारत का एक तबका समय के साथ बदलना नहीं चाहता. "परिवर्तन सृष्टि का नियम है" जैसे डायलॉग मारना आसान है, लेकिन उसे अमल में लाने के लिए साहस और ज्ञान चाहिए. कट्टरपंथ का इस तरह बढ़ना पूरे समाज के लिए घातक है. यह दूसरे संप्रदायों में भय का माहौल पैदा करता है. और भय के उस माहौल को भुनाने के लिए वहां भी कट्टरपंथी सक्रिय हो जाते हैं. ऐसा हो भी रहा है.

वैलेंटाइंस डे के बाजारीकरण पर भी काफी बहस हो सकती है और होनी भी चाहिए. लेकिन संस्कृति के नाम पर प्रेमी जोड़ों को पीटना, उनकी शादी करा देना, अच्छी बात नहीं. भारत एक भावुक देश है और भावनाएं प्रेम से सराबोर हों, तो भय कैसा.

ब्लॉग: ओंकार सिंह जनौटी