संसद को दागी होने से सांसद ही बचाएं
२१ फ़रवरी २०१५सांसद को अपराध और भ्रष्टाचार के दाग धब्बों से मुक्त कराने के लिए बीते एक दशक में न्यायपालिका ने अतिसक्रियता के आरोप झेलकर भी कारगर पहल की. इसी का नतीजा रहा कि संसद को जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव करना पड़ा और लालू यादव जैसे कद्दावर नेता भी चुनाव लड़ने तक से वंचित रह गए. लेकिन अचानक सर्वोच्च अदालत ने दागियों को मंत्री बनाने से रोकने की अपील पर अपनी हद का अहसास कराकर अपना रुख बदल लिया है. न्यायपालिका का यह यू-टर्न कानूनविदों के लिए कौतूहल का विषय बन गया है.
बेशक बीते कुछ सालों में संसद की सफाई के लिए उच्च अदालतों ने बढ़-चढ़ कर पहल की. इसी की वजह से चुनाव सुधार आंदोलन को न सिर्फ धार मिली, बल्कि मंजिल तक पहुंचने का रोडमैप भी तैयार हो सका. गुरुवार को दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला चुनाव सुधार प्रक्रिया से जुड़े लोगों के लिए चैंकाने वाला भले ही हो, मगर इसने विधायिका को आइना भी दिखाया है. इसमें साफ संकेत निहित है कि सुप्रीम कोर्ट के डंडे से विधायिका और कार्यपालिका को साफ करना मुमकिन नहीं है. क्योंकि अदालतों के फैसलों को सियासी जमात अब नसीहत की बजाय सजा समझने लगी है. इससे व्यवस्था के इन स्तंभों में न सिर्फ न्यायिक अतिसक्रियता के नाम पर टकराव बढ़ रहा है, बल्कि संविधान के मौलिक ढांचे में शामिल शक्तिपृथक्करण के सिद्धांत का भी उल्लंघन हो रहा है.
स्ंविधानविद शांतिभूषण का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में साफ कहा है कि आपराधिक और भ्रष्ट प्रवृत्ति के लोगों को नेता बनने से रोक कर लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी संसद और विधानसभाओं की भी है. आशय स्पष्ट है कि अदालत अपनी सक्रियता के कारण विधायिका को निष्क्रियता की वैशाखी नहीं लगाना चाहती है. इसीलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था में न सिर्फ संसद अपनी इस जिम्मेदारी को समझे, बल्कि जनता भी अपना नुमांयदा चुनते वक्त उसकी कारगुजारियों का बारीकी से परीक्षण करना सीखे. वरना अदालतें फैसलों के जोर पर बेदाग विधायिका का सच मनवाती तो रहेंगी लेकिन सियासी जमात स्वतःस्फूर्त तरीके से खुद कोई पहल नहीं करेंगी.
इस मामले में चीफ जस्टिस एचएल दत्तू सहित चार जजों की खंडपीठ से दागी सांसद या विधायक को मंत्री बनाने से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को रोकने की मांग की गई थी. सभी जजों ने एकमत होकर कहा कि यह मांग आदर्श तो है लेकिन न्यायपालिका भी अपनी लक्ष्मणरेखा से बंधी है. संसद इस बारे में खुद कानून बना कर यह काम कर सकती है जो उसे करना चाहिए. अदालत संसद को कोई कानून बनाने के लिए आदेश नहीं दे सकती. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की संविधानपीठ भी यही बात कह चुकी है.
संसदीय व्यवस्था को बेदाग रखने के लिए गेंद अब विधायिका और कार्यपालिका के पाले में आ गई है. न्यायपालिका ने इस फैसले से साफ कर दिया है कि इस दिशा में उसे जो करना था वह किया जा चुका है. अब आगे का रास्ता संसद और विधानसभाओं को खुद ही तय करना है इसलिए इसका रोडमैप भी इन्हें खुद ही बनाना होगा.