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संघ की सत्ता पर कुछ सवाल

१९ मई २०१४

प्रचंड जनादेश ने नरेंद्र मोदी को भारत की सत्ता सौंप दी. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पोषक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस सफलता पर इठला रहा है. जो चाहते थे कि कट्टर हिन्दूवादी सत्ता में न आएं, वे अब कई कारणों से हैरान परेशान हैं.

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तस्वीर: picture alliance/AP Photo

संघ, मोदी और देश दुनिया में फैली उनकी टीम के लिए बेशक अच्छे दिन आने वाले हैं. लेकिन क्या यही बात आम लोगों के बारे में भी कही जा सकती है और उन लोगों के लिए भी, जो संघ की वैचारिकी और मोदी की कार्यशैली के धुरविरोधी रहे हैं. क्या जनादेश की आड़ में उन्हें चुप रहने की हिदायत दी जाएगी या उनका बोरिया बिस्तर बांधा जाएगा. मोदी के आरोहण से नई चिंताएं उठने लगी हैं.

सबसे पहले सोशल नेटवर्किंग साइट्स को लें जहां कथित मोदीभक्तों ने निरपेक्ष रुख रखने वालों या मोदी के दावों पर सवाल उठाने वालों के खिलाफ एक युद्ध सरीखा ही छेड़ दिया था. वास्तविक समाज में ध्रुवीकरण की मशीन को चालू कर दिया गया था और हर जगह धुंध ही धुंध छा गई थी. मोदी और संघ के उभार को फासीवाद और नाजीवाद से जोड़ने वाले नेताओं, बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों, लेखकों, कलाकारों और अन्य विद्वानों को अब कटघरे में खड़ा किया जाने लगा है. सवाल उठ रहे हैं कि देखिए बहुत बोलते थे अब लीजिए जनता ने जवाब दे दिया. इस तरह पहले से फैले सांस्कृतिक सन्नाटे को और स्थायी बनाने की तैयारी की जाएगी.

Mohan Bhagwat Anführer der Organisation Rashtriya Swayamsevak Sangh
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवततस्वीर: Strdel/AFP/Getty Images

मोदी को शीर्ष पर पहुंचाने के लिए एक छोर पर अगर कॉरपोरेट है और दूसरे छोर पर उनकी आक्रामक दिखती कार्यशैली, तो इस जीत के केंद्र में है संघ यानि आरएसएस. उसकी वैचारिकी, उसका साजोसामान, उसके उपकरण, उसके लोग, उसका पूरा ढांचा. क्या वो अब एक नए ढंग की सफाई अभियान मे जुटेगा. मोदी ने वाराणसी में गंगा आरती कर एलान कर ही दिया है कि देश में सफाई अभियान चलेगा. क्या मतलब निकाले जाएं इसके. अगर कहा जाए कि कहीं इस अभियान का आशय संघ के उस अभियान से तो नहीं, जो वो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अपने फलसफे से सिंचित करता रहा है, तो क्या यह सरासर गलत या षडयंत्रकारी या देशद्रोही करार दिए जाने का सूचक को नहीं होगा. संघ की बुनियादी अवधारणा का एक अभिन्न अंग है कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है. क्या हिन्दू हिन्दू कहना अब चिल्लाना हो जाएगा. ये संदेह बन रहे हैं. अब या तो आप इन संदेहों को जाहिर ही मत कीजिए और दिन रात दिवाली मनाइये या इन्हें साझा करने का साहस कीजिए.

मैं 2009 में जर्मनी में रहा करता था. उन्हीं दिनों रामचंद्र गुहा की किताब आई थी इंडिया आफ्टर गांधी. इसके बड़े चर्चे थे. खूब पढ़ी जा रही थी और इसमें संघ को लेकर काफी बुनियादी बातें थी- ऐतिहासिक हवालों से कुछ बातों की चर्चा थी. एक सज्जन ने छुट्टी में हिंदुस्तान आते समय यही किताब लाने का अनुरोध किया. गुहा की किताब में उनकी दिलचस्पी पर फौरन हैरानी भी हुई लेकिन बाद में सारी चीज़ें जोड़ कर देखीं तो एक नया माजरा समझ में आया. एक चुनाव खत्म ही हो रहा था और एक किताब संघ की कार्यशैली में मंदप्रहार के साथ सामने आई थी- एक नए चुनाव यानी 2014 की तैयारी का एक और चरण उसी दिन शुरू हो गया था यानी 2009 में.

दिनेश नारायणन ने ऑनलाइन पत्रिका कारवां में पिछले साल हुई एक संघ कार्यशाला के हवाले से संघ प्रमुख मोहन भागवत के निश्चय के बारे में बताया. भागवत ने प्रतिभागियों से कहा कि बीजेपी नेताओं को सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और हिन्दू समाज के प्रति सेवा का भाव कायम रखना चाहिए. अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो पार्टी अप्रासंगिक हो जाएगी. भागवत के मुताबिक अगर 2014 का चुनाव जीत गई तो बीजेपी अगले 20-25 साल सत्ता में रह सकती है. अगर नहीं तो 100 साल के लिए उसे बचाया नहीं जा सकता. दिनेश नारायणन के मुताबिक उन्हें जिस प्रतिभागी ने ये बात बताई उसने ये भी बताया था कि संघ प्रमुख ने अपनी बात कुछ ऐसे अंदाज में कही थी मानो आरएसएस, बीजेपी को एक आखिरी मौका दे रहा हो.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ