कब होगा जर्मन और भारतीय खूबियों का मेल
२३ सितम्बर २०१६नई दिल्ली में जारी हुई स्टडी बैर्टेल्समन फाउंडेशन के लिए कंसल्टेंसी फर्म रोलांड बैर्गर ने की है. इस स्टडी के लिए भारत और जर्मनी में उद्यमों और मैनेजरों के साथ बात की गई. स्टडी के लेखकों का कहना है कि जर्मन उद्यमों और सरकार को फौरी कदम उठाने चाहिए ताकि वे भारत और दूसरे एशियाई देशों में पीछे न छूट जाएं. प्रोजेक्ट लीडर मुरली नायर ने डॉयचे वेले को बताया कि सहयोग की संभावना किन क्षेत्रों में है.
डॉयचे वेले: भारत के पास ऑफर करने के लिए क्या है?
मुरली नायर: भारत के पास व्यापक मानवीय पूंजी है. भारत में करीब 15 लाख इंजीनियर हैं और अगर आप देखें कि कितने भारतीय इंजीनियर अमेरिकी कंपनियों में काम करते हैं, तो वह आंकड़ों के हिसाब से भी विशाल है. दूसरे, भारतीय इंजीनियरों की मानसिकता अलग है, जिसे शायद किफायती कहा जा सकता है. भारत कम संसाधनों वाला देश है. लोग इसके साथ बड़े हुए हैं और यह उत्पादों के विकास में भी दिखाई देता है. इंजीनियरों के ध्यान दिए बिना उनके आविष्कार अक्सर महत्वपूर्ण बातों तक सीमित होते हैं. ऐसे उत्पाद न सिर्फ भारत में बल्कि दूसरे विकासशील देशों में अच्छी तरह बेचे जा सकते हैं. इस सोच का लाभ जर्मन कंपनियां भी उठा सकती हैं.
कितनी जर्मन कंपनियां इस समय भारत में सक्रिय हैं?
मसलन जर्मन सॉफ्टवेयर कंपनी एसएपी है, जो बेंगलूरू में सक्रिय है और वहां हजारों इंजीनियर काम करते हैं. वे इंटरनेट ऑफ थिंग्स पर काम कर रहे हैं, लेकिन बेंगलूरू से मैन्युफैक्चरिंग और प्रोडक्शन के क्षेत्र में भी शोध का काम हो रहा है. हमने अपनी स्टडी में ये भी पूछा कि एसएपी ये काम क्यों कर रहा है. जवाब ये नहीं था कि क्योंकि ये सस्ता है, बल्कि यह कि बेंगलूरू में डिजिटल शोध और रिसर्च और डेवलपमेंट को बढ़ावा देने वाली स्टार्ट अप कंपनियों का माहौल है. भारत में करीब 4,000 स्टार्ट अप कंपनियां हैं जिनमें से ज्यादा बेंगलूरू में हैं. जो कुछ नया डेवलप करना चाहता है, उसे देखना चाहिए कि दूसरे क्या कर रहे हैं. एसएपी स्वाभाविक रूप से बड़ी कंपनी है, मझौली कंपनियां अभी तक हिम्मत नहीं दिखा पा रही हैं. भारत एक जटिल बाजार है.
ज्यादातर जर्मन कंपनियां अभी भी भारत जाने से क्यों घबरा रही हैं?
गलती खुद भारत की है. नौकरशाही आसान नहीं है. लेकिन मोदी सरकार के तहत हालात धीरे धीरे बदल रहे हैं. इसके अलावा जब जर्मन और अमेरिकी कंपनियों की तुलना होती है और ये बात मैं अपने निजी अनुभव से कह सकता हूं, क्योंकि मैंने बेंगलूरू में जर्मन और अमेरिकी दोनों ही कंपनियों के लिए काम किया है, तो दोनों में सांस्कृतिक अंतर भी है. भारतीय और अमेरिकी आसानी से एक दूसरे के करीब आ जाते हैं. इस चुनौती को कम कर नहीं आंका जाना चाहिए.
जर्मनी और भारत के बीच रिसर्च और डेवलपमेंट में सहयोग को बढ़ाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
सबसे पहले तो आविष्कार को नये सिरे से परिभाषित किया जाना चाहिए. जर्मन इंजीनियरों के लिए आविष्कार का मतलब है नई टेक्नोलॉजी, बहुत सारे नए फीचरों के साथ हाईटेक. खर्च कम करने और तकनीकी को आसान बनाने पर उनका ध्यान नहीं होता. इसे वे चुनौती नहीं समझते. लेकिन भारतीय ऐसा प्रोडक्ट या सर्विस बाजार में लाना चाहते हैं जो विकासशील देशों के ग्राहकों के अनुरूप हों. हाईटेक की मांग उतनी ज्यादा नहीं है. इसके बारे में जर्मनों में समझ आनी बाकी है और इसमें वे भारतीयों से सीख सकते हैं.
दूसरी ओर भारतीय बहुत अच्छे संकटमोचक हैं, लेकिन उन्हें दीर्घकालिक योजना बनाने में मुश्किल होती है. इसलिए हमारी स्टडी में एक मिसाल है, भारतीय स्टार्ट अप कंपनी ग्रे ऑरेंज और एक जर्मन आईबीएम इंजीनियर की, जिन्होंने मिलकर एक प्रोडक्ट डेवलप किया है. उनका कहना है कि भारतीय संकट प्रबंधन और जर्मन दीर्घकालिक प्लानिंग का अच्छा सहयोग हो सकता है, यदि दोनों एक दूसरे को समझें और सम्मान करें. इसमें दोनों पक्षों के लिए बड़ी संभावना छिपी है.
जर्मन और भारतीय खूबियों के मेल से बड़े और बढ़ते बाजार तक पहुंचा जा सकता है. युवा और बढ़ती आबादी वाले विकासशील देशों में जहां एक अपेक्षाकृत बड़ा मध्यवर्ग भी है.
मुरली नायर बैर्टेल्समन फाउंडेशन के जर्मन और एशिया प्रोग्राम के लिए काम करते हैं. वे फाउंडेशन की ताजा स्टडी के प्रोजेक्ट मैनेजर हैं.