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वैज्ञानिक रिसर्च में फर्जीवाड़ा

१४ जून २०१४

हाल ही में एक जापानी वैज्ञानिक ने अपने रिसर्च में गड़बड़ी की बात को मानते हुए प्रकाशित हो चुके दो पेपरों को वापस लेने का निर्णय किया है. आखिर वैज्ञानिक शोध में धोखाधड़ी करने की रिसर्चरों को जरूरत ही क्या है.

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तस्वीर: Reuters/Kyodo

जापान के राइकेन सेंटर फॉर डेवेलपमेंटल बायोलॉजी की हारुको ओबोकाता ने जब वयस्क कोशिका को एक सीधी और सरल प्रक्रिया से स्टेम कोशिका में बदलने का तरीका ढूंढ निकालने का दावा किया तो विज्ञान जगत में हलचल मची. जनवरी में नेचर पत्रिका में छपे इस शोध पर कई तरह की आपत्तियां उठने लगीं. इस क्षेत्र के कई दूसरे वैज्ञानिकों ने जब ओबोकाता के बताए तरीके को दोहराने की कोशिश की तो वो ऐसा नहीं कर पाए. ऐसे में उन पर रिसर्च में फर्जी तस्वीरें और टेक्स्ट की चोरी के आरोप लगे. ओबोकाता इन आरोपों से इनकार करती आईं लेकिन मई में उन्होंने अपना ये शोधपत्र वापस लेने में ही भलाई समझी.

ऐसा होता रहा है

असल में स्टेम सेल के बारे में ओबोकाता की खोज कई लोगों को शुरू से ही अविश्वसनीय लग रही थी. दक्षिण कोरिया के एक पशु विज्ञानी ह्वांग वूसुक ने भी 2006 में ऐसे दावे किए कि उन्होंने क्लोनिंग की तकनीक से मानव की भ्रूण कोशिका बनाने में सफलता पाई है. बाद में सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी ने ह्वांग के शोध को खारिज करते हुए बताया था कि उन्होंने नतीजों में हेराफेरी की है.

इसके अलावा फीजिक्स के क्षेत्र में एक जर्मन रिसर्चर का मामला बहुत प्रमुखता से याद किया जाता है. काफी लंबे समय तक यान हेन्ड्रिक शोन ने सेमीकंडक्टरों पर अपने कई असाधारण प्रयोगों के लिए काफी ख्याति पाई. बाद में पता चला कि उनके प्रयोग के नतीजे फर्जी थे.

आसान नहीं है धोखाधड़ी

जर्मनी के रिसर्च फंडिंग संस्थान, डीएफजी ने ऐसे फर्जी मामलों पर नजर रखने के लिए एक केंद्रीय समिति बनाई है. यहां कोई भी शोधकर्ता अपने किसी सहयोगी या दूसरे रिसर्चर के काम में गड़बड़ी की आशंका होने पर शिकायत दर्ज करा सकता है. डीएफजी के प्रवक्ता मार्को फिनेटी कहते हैं, "नतीजों से छेड़छाड़ करना बहुत बड़े स्तर पर नहीं होता है." फिनेटी बताते हैं कि पिछले 15 साल में समिति के सामने ऐसे केवल 500 मामले आए हैं. ज्यादातर मामलों में साइटेशन गलत दिए गए थे या फिर किसी और के लिखे काम को चुरा कर अपने रिसर्च पेपर में शामिल किया गया था.

पहचान और कमाई दोनों

वैज्ञानिकों को कई बार अपने ही समुदाय में दबाव झेलना पड़ता है. शोध के लिए फंड देने वालों की ओर से भी जल्दी नतीजे तक पहुंचने का दबाव आता है. वैसे तो किसी भी रिसर्च के प्रकाशित होने की प्रक्रिया में कई स्तरों से गुजरना पड़ता है. हर रिसर्च पेपर को छपने से पहले कम से कम दो समीक्षकों से चेक कराना होता है. इसके अलावा कुछ सॉफ्टवेयर भी तस्वीरों और ग्राफिक्स को चेक कर सकते हैं. कई मामलों में फर्जी रिसर्च इन तरीकों के बावजूद बच निकलता है और तभी पकड़ में आता है जब दूसरे वैज्ञानिक उसी प्रयोग को खुद दोहराने की कोशिश करते हैं.

रिपोर्टः ब्रिगिटे उस्टेराथ/आरआर

संपादनः ए जमाल