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विभाजन की त्रासदी से कराहता बंगाल

प्रभाकर मणि तिवारी
१५ अगस्त २०१७

पश्चिम बंगाल शायद भारत का अकेला ऐसा राज्य है जिसे विभाजन का सबसे ज्यादा दंश झेलना पड़ा था. साझी भाषा व संस्कृति वाले बंगाल का एक हिस्सा पूर्वी बंगाल तब पूर्वी पाकिस्तान बन गया था.

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Teilung Indiens Flüchtlingscamp in Delhi
तस्वीर: picture alliance/dpa/United Archives/WHA

यूं तो 1905 में ही प्रशासनिक सहूलियत की वजह से अंग्रेजों ने बंगाल के दो हिस्से कर दिये थे. लेकिन 1947 के विभाजन के चलते सीमापार से शरणार्थियों के आने का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह आज भी जस का तस है. इससे राज्य की आबादी का ग्राफ, सामाजिक तानाबाना और आर्थिक परिदृश्य पूरी तरह बदल गया. राजनीतिक दल भी इस आप्रवासन को अपने-अपने तरीके से भुनाते रहे हैं. अब आजादी के सात दशक पूरे होने के बावजूद पश्चिम बंगाल उस विभाजन की त्रासदी से कराह रहा है. 

जानी-मानी पत्रिका द इकोनॉमिक वीकली ने 15 अगस्त, 1954 के अपने अंक में छपे एक लेख में कहा था कि सात साल पहले भारत के आजाद होने पर विभाजित पश्चिम बंगाल एक समस्याग्रस्त राज्य बन गया है. बंगाल में दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा उद्योग तो हैं, लेकिन उनकी प्रगति नहीं हो रही है. पत्रिका के संस्थापक संपादक सचिंद्र चौधरी, जो आगे चल कर देश के वित्त मंत्री बने, ने उस लेख में जो आशंकाएं जताई थीं वह जल्दी ही सच साबित हुईं.

वर्ष 1947 से 1971 के बीच बंगाल में सीमा पार से आने वाले सत्तर लाख शरणार्थियों ने राज्य की आबादी का ग्राफ तो बदला ही, भावी राजनीति की दशा-दिशा भी तय कर दी. 1971 के बाद भी शरणार्थियों के आने का सिलसिला जस का तस है. तमाम राजनीतिक दलों ने उनका इस्तेमाल अपने वोट बैंक की तरह किया. बड़े पैमाने पर होने वाली इस घुसपैठ ने इस राज्य की अर्थव्यवस्था और राजनीति के ढांचे व स्वरूप को इस कदर बिगाड़ दिया कि यह अब तक सही रास्ते पर नहीं लौट सकी है.

ब्रिटिश शासकों ने शासन की सहूलियत के लिए वैसे तो वर्ष 1905 में ही बंगाल का विभाजन कर पूर्वी और पश्चिम बंगाल बना दिया था. आजादी के बाद बंगाल को भी धार्मिक आधार पर विभाजन की मार झेलनी पड़ी. वैसे, शुरूआती दौर में विधानसभा की पहली बैठक में तो 90 के मुकाबले 120 मतों से बंगाल को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने का प्रस्ताव पारित हो गया था. लेकिन बाद में इसे भारत में ही रखने का फैसला किया गया. नतीजतन कभी पूर्वी बंगाल रहे राज्य का नाम बदल कर पूर्वी पाकिस्तान हो गया. उसी समय से धार्मिक आधार पर सीमापार से लोगों के यहां आने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह 1971 के मुक्ति युद्ध के समय अपने चरम पर पहुंच गया. भारी तादाद में शरणार्थियों के आने से सामाजिक टकराव की घटनाएं तेज होने लगीं. विभाजन की त्रासदी, बढ़ती बेरोजगारी और उद्योगों का विकास ठप होने से स्थानीय आबादी में तो पहले से ही नाराजगी थी. शरणर्थियों की आवक ने उनकी इस नाराजगी की आग में घी डालने का काम किया. आम लोगों के मन में यह भावना घर करने लगी कि सीमापार से आने वाले लोग उनका हक छीन रहे हैं. नतीजतन छोटे-छोटे मुद्दों पर भी बड़े पैमाने पर गुस्सा फूटने लगा.

कांग्रेस सरकार के शासनकाल के दौरान राज्य में कानून व व्यवस्था का ढांचा तो ठप हो ही गया था, औद्योगिक परिदृश्य भी बिगड़ने लगा था. उसके बाद सत्ता में आने वाली वाममोर्चा सरकार का कार्यकाल तो उद्योगों के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित हुआ. उस दौर में शुरू होने वाले उग्रवादी ट्रेड यूनियनवाद ने उद्योगों को धीमी मौत मरने पर मजबूर कर दिया. उसी दौर में व्यापारिक घराने कोलकाता छोड़ कर दूसरी जगह जाने लगे. वह बेरोजगारी बढ़ने और वित्तीय ढांचा चरमराने का दौर था. मध्यवर्ग के लोगों और खासकर महिलाओं पर उसका काफी प्रतिकूल असर पड़ा. जाने-माने फिल्मकार सत्यजित रे ने अपनी फिल्मों महानगर (1963), प्रतिद्वंद्वी (1970), सीमाबद्ध (1971) और जन अरण्या (1976) में तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक हालात का बेहतरीन चित्रण किया था.

शिक्षा, स्वास्थ्य और उद्योगों के मामले में सात दशक पीछे मुड़ कर देखने पर तादाद के लिहाज से अब तस्वीर बेहतर तो लगती है. लेकिन जहां तक सामाजिक और आर्थिक प्रगति का सवाल है, हालात बहुत ज्यादा नहीं बदले हैं. वाममोर्चा के शासनकाल में खासकर ज्योति बसु के मुख्यमंत्री रहते हजारों की तादाद में छोटे व मझौले उद्योग बंद हो गए. बंगाल की जो जूट मिलें कभी सोना उगलती थीं वह अब अपनी किस्मत को कोसते हुए सुनहरे अतीत की याद में आंसू बहा रही हैं.

बसु के बाद मुख्यमंत्री बनने वाले बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने दूसरे कार्यकाल में राज्य में औद्योगिक विकास तेज करने की जो कवायद शुरू की वह गलत रणनीति और विपक्ष के आंदोलन की वजह से नंदीग्राम और सिंगुर आंदोलन के तौर पर इतिहास में दर्ज होकर रह गई. छह साल पहले बदलाव की लहर पर सवार होकर सत्ता संभालने वाली ममता बनर्जी सरकार भी उद्योगों को लेकर ढिंढोरा पीटने के बावजूद अब तक कुछ खास नहीं कर सकी है. तृणमूल कांग्रेस बीते तीन वर्षों से यहां बड़े पैमाने पर निवेशक सम्मेलन आयोजित करती रही है. इसके अलावा ममता अपने भारी-भरकम प्रतिनिधिमंडल के साथ निवेश जुटाने विदेशी दौरों पर जाती रही हैं. लेकिन अब तक नतीजा सिफर ही रहा है.

अब हालत यह है कि राज्य से प्रतिभा का पलायन तेज हो रहा है. आजादी के बाद यहां स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की तादाद में भारी वृद्धि के बावजूद ज्यादातर छात्र अगर उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली और दक्षिण भारत के महानगरों को तरजीह दे रहे हैं तो इसकी वजह है गुणवत्ता व शिक्षा का राजनीतिकरण. वाममोर्चा के दौर में ही शिक्षा के राजनीतिकरण की जो मजबूत बयार चली थी उसका खामियाजा बंगाल को अब तक भुगतना पड़ रहा है. सत्ता का रंग बदलने के बावजूद शिक्षा पर चढ़ा राजनीति का रंग अभी नहीं उतरा है. नतीजतन छात्र दूसरे शहरों की ओर भाग रहे हैं. यह विडंबना ही है कि किसी दौर में अपनी शैक्षणिक गुणवत्ता के लिए मशहूर कोलकाता की अब ऐसी हालत हो गई है.

यह महानगर आजादी के पहले से ही शिक्षा का गढ़ रहा है. आधुनिक शिक्षा के विकास में कोलकाता की भूमिका बेहद अहम रही है. एशिया का सबसे पुराना कलकत्ता मेडिकल कालेज वर्ष 1835 में यही स्थापित हुआ था. इसी तरह वर्ष 1857 में स्थापित कलकत्ता विश्वविद्यालय विविध विषयों में पठन-पाठन वाला दक्षिण एशिया में अपने किस्म का पहला विश्वविद्यालय है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि देश के साथ बंगाल के विभाजन, सीमापार से होने वाली घुसपैठ, इनसे सामाजिक संरचना व आर्थिक परिदृश्य में होने वाले बदलाव, सत्ता में रहने वाली सरकारों की तुष्टिकरण की नीति और उद्योगों के प्रति उनके रवैये ने बीते सात दशकों में पश्चिम बंगाल को सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर इतना पीछे धकेल दिया है कि आने वाले निकट भविष्य में उसकी भरपाई बहुत मुश्किल है.