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लकड़ी के बुरादे से नायलॉन

२९ अप्रैल २०१४

नायलॉन इंसान के लिए जितने काम की चीज साबित हुई है उतना ही पर्यावरण को नुकसान भी पहुंचती है. सालों से कोशिश हो रही है कि इसे पेट्रोलियम के बजाय किसी जैविक स्रोत से बनाया जा सके. जर्मन वैज्ञानिकों को कामयाबी नजर आ रही है.

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तस्वीर: DW/D. Baber

प्लास्टिक का उत्पादन भी काफी हद तक पौधों पर निर्भर हो रहा है. लेकिन वे पौधे जो इंसान के खाने में काम आ सकते हैं, उनसे प्लास्टिक बनाना समझदारी नहीं. इसी तरह नई शोध के आधार पर नायलॉन भी बनाया जा रहा है, वैज्ञानिकों की कोशिश है कि इससे खाने पीने के स्रोतों पर असर न पड़े.

बैक्टीरिया की मदद

एक खास तरह का बैक्टीरिया सूडोमोनास पुटीडा लकड़ी में पाए जाने वाले जटिल पॉलीमर लिग्निन को ऐसी चीज में बदल देता है, जिससे एडिपिक एसिड बनता है. एडिपिक एसिड उच्च क्वालिटी नायलॉन का प्रमुख स्रोत है.

जर्मनी की जारलैंड यूनिवर्सिटी में बायोटेक्नोलॉजी के प्रोफेसर क्रिस्टोफ विटमन कहते हैं, "नायलॉन का बायोटेक्निकल उत्पादन ही ग्रीनहाउस गैस पैदा करने वाले और तेल खर्च कर नायलॉन बनाने के तरीके का सही विकल्प है." प्रोफेसर विटमन और उनके साथी अब इस दिशा में काम कर रहे हैं कि इस तकनीक से वे बड़ी मात्रा में नायलॉन उत्पादन का तरीका निकाल सकें ताकि इसे औद्योगिक स्तर पर इस्तेमाल किया जा सके. उन्होंने इसका पेटेंट भी करा लिया है.

क्या है लिग्निन

जर्मन केमिकल कंपनी बीएएसएफ भी लिग्निन के इस्तेमाल पर रिसर्च कर रही है. लिग्निन लकड़ी की कोशिकाओं की दीवार में पाया जाता है. यह रेशेनुमा स्वादहीन पॉलिमर है, जो पानी या अल्कोहल में नहीं घुलता. सूखी लकड़ियों का 30 फीसदी हिस्सा इन्हीं लिग्निन का होता है. धरती पर जैविक तत्वों में सेल्यूलोस के बाद सबसे ज्यादा मात्रा में लिग्निन ही मौजूद है. बीएएसएफ के निदेशक कार्सटेन सीडेन कहते हैं, "एक जटिल मैक्रोमॉलिक्यूल होने के नाते लिग्निन आसानी से बायोमटीरियल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है." उनके मुताबिक कागज उत्पादन के संयंत्र जैसी जगहों पर लिग्निन बड़ी मात्रा में कचरे के रूप में निकलता है. अगर इससे औद्योगिक स्तर पर नायलॉन का उत्पादन हो तो यह बड़ी कामयाबी होगी.

बढ़ती आबादी के साथ प्लास्टिक की मांग बढ़ती जा रही है. दुनिया भर के बायोटेक्नोलॉजिस्ट इस विषय पर काम कर रहे हैं कि किस तरह प्लास्टिक के उत्पादन के लिए कच्चे तेल की जगह दूसरे अक्षय स्रोतों का इस्तेमाल किया जा सके. बायोप्लास्टिक का निर्माण प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर है. लेकिन दुनिया भर में जितनी प्लास्टिक इस्तेमाल हो रही है उसके मुकाबले अभी तक बायोप्लास्टिक का इस्तेमाल बहुत कम है. बर्लिन की कंपनी यूरोपियन बायोप्लास्टिक के मुताबिक यह मात्रा एक फीसदी से भी कम है.

बढ़ेगा बायोप्लास्टिक बाजार

जानकारों का मानना है कि धीरे धीरे बाजार में बायोप्लास्टिक की हिस्सेदारी बढ़ेगा. जर्मनी के नोवा इंस्टीट्यूट का मानना है कि 2020 तक यह दोगुना बढ़ सकता है. यूरोप में 2017 तक बायोप्लास्टिक का सालाना उत्पादन 70 लाख टन पहुंच सकता है. नोवा इंस्टीट्यूट का मानना है कि नए केमिकल बहुत जल्द बाजार की सूरत बदल देते हैं. कोका कोला जैसी कंपनियां भी अपनी बोतलों में कुछ हिस्सा बायोप्लास्टिक का लगाती हैं. इस प्लास्टिक को बोल चाल में पेट कहा जाता है. नोवा के अनुसार 2020 तक इन बोतलों का उत्पादन मौजूदा छह लाख टन से बढ़ कर 50 लाख टन पहुंचने की उम्मीद है.

जर्मन रिसर्चर विटमन और उनके साथी अगले तीन साल में इसी पर ध्यान केंद्रित करने वाले हैं कि अक्षय स्रोतों से औद्योगिक स्तर पर कैसे नायलॉन तैयार किया जाए. उनके इस प्रोजेक्ट को जर्मनी के शिक्षा एवं रिसर्च मंत्रालय से करीब 14 लाख यूरो का आर्थिक अनुदान मिला है.

एसएफ/एजेए (डीपीए)