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रंगमंच से बंधे फिरोज खान

२८ मई २०१३

"रंगमंच मेरा सबसे बड़ा जुनून है, बाकी मैं कभी कभी फिल्में भी बना लेता हूं." कहना है फिरोज अब्बास खान का. खान की नई फिल्म देख तमाशा देख न्यू यॉर्क के भारतीय फिल्म उत्सव की ओपनिंग फिल्म रही.

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तस्वीर: DW

वह तुम्हारी अमृता, सालगिरह, महात्मा वर्सेस गांधी, सेल्समेन रामलाल जैसे नाटकों का सफल मंचन कर चुके हैं. नाटकों में अभिनय से शुरुआत करने वाले खान ने नाटक निर्देशन की और रुख क्यों किया? उनका कहना है कि निर्देशक का नजरिया, उसकी सोच और काम की सीमाएं अलग तरह की होती हैं और उन्हें लगा कि वो उसे बखूबी कर सकते हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अभिनय बिलकुल नहीं करते, जरूरत पड़ने पर अभिनेता का हैट भी पहन लेते है.

खान मानते हैं कि क्योंकि वो पहले अभिनय कर चुके हैं तो एक निर्देशक होने के नाते अभिनेताओं की क्षमता को करीब से समझ सकते हैं. दूसरी ओर अभिनेता भी उनके निर्देशन को सहजता से लेते हैं, "थियेटर में अहम बात है कि कई बार बहुत कम संसाधनों के बीच भी बहुत बड़ी बात कह सकते हैं. उसमें एक आजादी है, कम दायरा होते हुए भी बहुत कुछ किया जा सकता है. जबकि सिनेमा की अपनी मर्यादाएं हैं."

देख तमाशा देख उनकी दूसरी फिल्म है. वह बताते हैं कि यह एक सामाजिक राजनीतिक व्यंग्य है. एक मामूली आदमी पर बड़ा सा विज्ञापन बोर्ड गिरता है और उसकी मौत हो जाती है. और फिर शुरू होती है उसकी धार्मिक पहचान को लेकर खींचातानी. खान पिछले 12 साल से इस फिल्म की परिकल्पना कर उसे बड़े परदे पर लाने का प्रयास कर रहे थे.

Der indische Filmregisseur Feroz Abbas Khan
न्यूयॉर्क फेस्टिवल में फिरोज अब्बास खानतस्वीर: DW

इस दौरान वो नाटकों का मंचन तो कर ही रहे थे, बल्कि अपने सफल नाटक महात्मा वर्सेस गांधी को अपनी पहली फिल्म गांधी माई फादर के रूप में प्रस्तुत किया. फिल्म महात्मा गांधी और उनके पुत्र हरिलाल के संबंधों पर है. हालांकि फिल्म को कई पुरस्कार भी मिले, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा सफल नहीं रही. वह कहते हैं, "जब इस तरह की फिल्में बनती हैं तो लगता है की शायद फिल्म ज्यादा पैसा नहीं बनाएगी, लेकिन मेरा मानना है कि उस पर लगा पैसा वापस आना चाहिए और मेरी फिल्म के साथ ऐसा हुआ भी. फिर इस तरह की फिल्में हफ्ते भर की ही नहीं होती हैं, लंबी उम्र की होती है. गांधी माई फादर भी आज तक जगह जगह दिखाई जाती है, खासकर गांधीजी से जुड़े उत्सवों में."

वह कहते हैं कि आज की 100 करोड़ बनाने की फिल्मों की रिवायत बड़ी अद्भुत है. उनके अनुसार पहले सिल्वर जुबली का जोर था और अब 100 करोड़ की बात होती है. आज फिल्मों की मार्केटिंग बहुत महत्वपूर्ण हो गई है और उसके चलते कुछ बेकार की फिल्में भी उस दायरे में पहुंची हैं. लेकिन दर्शक समझने लगे हैं कि किस फिल्म में कितना दम है. डॉयचे वेले के कुछ सवालों के जवाब उन्होंने इस तरह दिए.

डीडब्ल्यूः फिल्में मनोरंजन का माध्यम हैं या उसमे कुछ संदेश भी होना जरूरी है?

खानः यह मुद्दा हमेशा सामने आएगा. हम सिनेमा को कला के रूप में देखते हैं ऐसे में उस कला का जिंदगी से जुड़ना जरूरी है. आम जिंदगी में जो हो रहा है उसकी झलक फिल्मों में भी होनी चाहिए. लेकिन मुख्यधारा की मनोरंजन कारी फिल्मों पर यह जिम्मेदारी न ही डाली जाय कि वे सन्देश भी दें. अगर वे देती हैं तो अच्छा है. वैसे भी हाल की कई सफल फिल्मों ने संदेश भी दिया है.

डीडब्ल्यूः न्यूयॉर्क के ब्रोडवे थिएटर अपने मंचन, अपनी कमाई और स्टारकास्ट के लिए दुनिया भर में मशहूर है. क्या भारत का रंगमंच उसकी बराबरी कर सकता है?

खानः हमें किसी की नकल करने की जरूरत नहीं है. हमारी सच्चाई अलग है, इनकी अलग. भारतीय रंगमंच ब्रोडवे की तरह उस बड़े स्तर पर मंचन नहीं कर सकता. न तो उस तरह के संसाधन हैं और न ही दर्शक, जो एक नाटक को कई कई महीने तक चलाते रहें.

फिलहाल फिरोज अब्बास खान निर्देशित पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त नाटक डिनर विथ फ्रेंड्स भारत में सफलतापूर्वक खेला जा रहा है. फिल्म देख तमाशा देख विभिन्न फिल्मोत्सवों में दिखाई जाएगी.

इंटरव्यूः अंबालिका मिश्र, न्यूयॉर्क

संपादनः ए जमाल

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