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यौन उत्पीड़न मामलों में रवैया बदलना होगा

२२ जून २०१५

चर्चित फिल्म ‘पीपली लाइव' के सह-निर्देशक महमूद फारूकी की बलात्कार के आरोप में गिरफ्तारी होने के बाद एक बार फिर यह सवाल बहस के केंद्र में आ गया है कि यौन अपराध के आरोपी के प्रति समाज और मीडिया का रवैया कैसा होना चाहिए.

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तस्वीर: UNI

दरअसल इस समय भारत में यौन उत्पीड़न के खिलाफ काफी सख्त कानून हैं और यदि किसी व्यक्ति पर किसी महिला के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा हो तो उसकी गिरफ्तारी तय है. हर मुद्दे की तरह ही इसके भी कम-से-कम दो पहलू तो हैं ही. इसलिए यह जरूरी है कि इस विषय में सभी संबंधित पक्ष बेहद संवेदनशीलता का परिचय दें.

अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद भारतीय समाज आज भी अधिकांशतः पितृसत्तात्मक संरचना और मूल्यव्यवस्था वाला समाज है जिसमें स्त्री को पुरुष से हीन मानने, उसके प्रति तिरस्कार और अपमान जताने और पुरुष को नैसर्गिक रूप से श्रेष्ठ मानने को स्वाभाविक समझा जाता है. यह माना जाता है कि स्त्री को ‘न' कहने का अधिकार नहीं है. इसलिए जब कोई महिला किसी पुरुष द्वारा की जा रही छेड़-छाड़ के खिलाफ विरोध प्रकट करती है तो अक्सर लोगों की प्रतिक्रिया यह होती है कि वह बिला वजह तिल का ताड़ बना रही है. लगभग हर माह युवा लड़कियों पर उन पुरुषों द्वारा तेजाब फेंके जाने की घटनाओं के समाचार आते हैं जो उनके प्रेम को अस्वीकार करके उनके अहं को आहत कर देती हैं. यह भी देखा गया है कि पुरुष द्वारा शारीरिक संपर्क बनाने के प्रयास का स्त्री द्वारा विरोध किए जाने की परिणति बलात्कार में होती है.

अधिकांश मामलों में परिजनों और अधिकारियों का रवैया भी मामले को रफा-दफा करने वाला होता है. अभी पिछले सप्ताह ही दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफेंस कॉलेज की एक छात्रा ने अपने शोध-निदेशक के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए पुलिस में रपट दर्ज कराई है. उसका यह भी कहना है कि जब लगभग एक साल पहले उसने कॉलेज के प्रिंसिपल से इस बारे में शिकायत की तो उन्होंने उस पर उचित कार्रवाई नहीं की, जबकि प्रिंसिपल ने इसका खंडन किया है.

इस समस्या का दूसरा पक्ष यह है कि किसी व्यक्ति पर आरोप लगते ही उसे दोषी मान लिया जाता है. मुख्यधारा का मीडिया और फेसबुक एवं ट्विटर जैसे सोशलमीडिया उस व्यक्ति पर सार्वजनिक मुकदमा शुरू कर देता है. अक्सर उसे अपना पक्ष रखने का मौका भी नहीं मिलता. डेढ़ वर्ष पहले ऐसी ही एक घटना जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार खुर्शीद अनवर के साथ हुई. उन पर बलात्कार का आरोप लगते ही एक टीवी चैनल ने उन पर दो-तीन दिन तक लगातार कार्यक्रम किया जिनमें उन्हें बाकायदा ‘बलात्कारी' कहा गया. और एक दिन रोज-रोज की जिल्लत से तंग आकर अनवर ने आत्महत्या कर ली. इसी तरह प्रसिद्ध पत्रकार तरुण तेजपाल को भी आरोप लगते ही दोषी मान लिया गया. दरअसल समस्या यह है कि ऐसे गंभीर आरोप लगने के बाद किसी भी व्यक्ति की सार्वजनिक छवि हमेशा के लिए दागदार हो जाती है, भले ही बाद में वह निर्दोष साबित हो जाए. कई मामलों में आरोपी अदालत से साफ बरी हुए हैं और कई मामलों में आरोप लगाने वाली महिला ने बाद में उन्हें वापस भी लिया है.

महमूद फारूकी पर भारतीय मूल की एक अमेरिकी शोध छात्रा ने आरोप लगाया है कि वह उनके घर एक पार्टी में गई थी. अन्य मेहमानों के जाने के बाद भी फारूकी ने उनसे कहा कि वह उनकी पत्नी और ‘पीपली लाइव' की सह-निर्देशक अनुषा रिजवी के आने तक रुक जाये. अकेले में उन्होंने उसके साथ बलात्कार किया. लेकिन जब कुछ ही देर बाद अनुषा रिजवी वहां पहुंच गईं तो वह शोध छात्रा बिना कुछ कहे वहां से चली आई. आरोप के अनुसार यह घटना इस वर्ष मार्च में घटी, लेकिन वह छात्रा अमेरिका वापस चली गई. अब उसने भारत आकर रिपोर्ट दर्ज कराई है. अनुषा रिजवी ने अपने पति के खिलाफ आरोपों को बेबुनियाद बताया है और महमूद फारूकी के पक्ष में बयान दिया है.

सच्चाई क्या है, यह तो जांच के बाद अदालत के फैसले से ही पता चलेगा. लेकिन इतना साफ है कि जहां यौन उत्पीड़न की घटनाओं को गंभीरता से लेने की जरूरत है, वहीं आरोपी को तत्काल दोषी मान लेने की मानसिकता से मुक्त होने की भी जरूरत है. पुलिस हो या अन्य अधिकारी, उन्हें मामले को रफा-दफा करने की कोशिशों से बचना चाहिए और शिकायतकर्ता की शिकायत पर तत्काल कानूनसम्मत कार्रवाई करनी चाहिए. मीडिया की इस मामले में जिम्मेदारी भी बहुत बड़ी है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार