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मुफ्ती सरकार का खेल

१८ अप्रैल २०१५

जम्मू-कश्मीर में क्या खेल खेला जा रहा है? बीजेपी की शिरकत से चल रही मुफ्ती सरकार के सत्ता में आते ही कश्मीर घाटी में भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक तत्व इतना सक्रिय क्यों हो गए हैं?

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/Singh

मसर्रत आलम की गिरफ्तारी के बाद कश्मीर घाटी में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए हैं. पाकिस्तान-समर्थक हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी के स्वागत में रैली आयोजित करने और उसमें पाकिस्तानी झंडे फहराने और पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाए जाने पीछे उसकी बहुत बड़ी भूमिका थी. पाकिस्तान ने इस घटना की व्याख्या यह कह कर की कि इससे पता चलता है कि कश्मीर की जनता के दिल में उसके लिए कितना प्यार है.

लेकिन दूसरी तरफ यह भी सवाल उठता है कि राज्य सरकार उन पर अंकुश लगाने के बजाय उन्हें शह क्यों दी जा रही है? क्या भारतीय जनता पार्टी द्वारा व्यक्त किया जा रहा आक्रोश सिर्फ जबानी जमा खर्च नहीं है? अगर वह केंद्र और राज्य में सत्ता में न होती, तब भी क्या उसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही होती? पिछले कुछ समय की घटनाओं को देखकर किसी के भी मन में ये सवाल पैदा होना स्वाभाविक है और इनकी पृष्ठभूमि में बीजेपी को जम्मू में मिली अभूतपूर्व चुनावी सफलता है जिसके कारण राज्य का राजनीतिक मानचित्र मुस्लिम बहुल कश्मीर और हिन्दू बहुल जम्मू में बंट गया है. क्या इस विभाजन को औपचारिक शक्ल देने की कोशिश तो नहीं की जा रही?

Mufti Mohammed Sayeed
मार्च में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सईदतस्वीर: picture alliance/AP Photo/Anand

क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि इस समय जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री वही मुफ्ती सईद हैं जिनके दिसंबर 1989 में भारत का गृह मंत्री बनते ही आतंकवादियों के उनकी बेटी रूबिया को अगवा कर लिया था और उसकी रिहाई के बदले पांच आतंकवादियों को जेल से रिहा किया गया था. इन्हीं मुफ्ती सईद के केन्द्रीय गृह मंत्री रहते हुए कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों को खदेड़ा गया था, आतंकवादी गतिविधियां एका एक बढ़ गई थीं और 1990 का पूरा दशक इनकी भेंट चढ़ गया था. कश्मीर को इस्लामी गणतन्त्र घोषित करने वाले पोस्टरों से घाटी को पाट दिया गया था. क्या इतिहास अपने-आप को दुहराने जा रहा है?

मुफ्ती मुहम्मद सईद की मजबूरी यह है कि उन्हें हर हालत में अपने आपको नेशनल कान्फ्रेंस के मुकाबले भारत सरकार के अधिक विरोध में दिखाना है ताकि पाकिस्तानपरस्त उग्रवादी और आतंकवादी तत्व खुश रहें. विधानसभा चुनाव की सफलता के लिए पाकिस्तान और हुर्रियत कान्फ्रेंस को धन्यवाद देना, मसर्रत आलम को रिहा करना और गिलानी की रैली आयोजित करने देना और पाकिस्तानी झंडे फहराने के बाद भी काफी समय तक गिरफ्तार करने में हिचकना, ये सभी इसी ओर संकेत करते हैं. सईद का पिछला इतिहास भी आश्वस्त करने वाला नहीं है.

लेकिन भारतीय जनता पार्टी और जम्मू-कश्मीर में उसके पूर्वज संगठनों का इतिहास भी बहुत आश्वस्त नहीं करता. शायद आज बहुत लोगों को यह याद न हो कि जब महाराजा हरी सिंह राज्य को भारत में मिलाने के लिए तैयार नहीं थे, तब राज्य के हिन्दू नेता भी उनका समर्थन कर रहे थे क्योंकि उन्हें यह मंजूर नहीं था कि एक हिन्दू रियासत धर्मनिरपेक्ष भारत का हिस्सा बने. मई 1947 में अखिल जम्मू-कश्मीर राज्य हिन्दू सभा की कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित करके कहा था कि विलय के सवाल पर वे जो भी फैसला करेंगे, वह उसे मान्य होगा. जब 1953 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा भेजे गए मध्यस्थ सर ओवेन डिक्सन ने जम्मू-कश्मीर को एक सुगठित आर्थिक-भौगोलिक-राजनीतिक इकाई न मानते हुए यह सुझाव दिया कि उसके अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग जनमत संग्रह कराया जाये और कश्मीर घाटी के बारे में अलग से फैसला लिया जाये, तो भारतीय जनसंघ को यह मंजूर था और उसके उस वक्त के नेता बलराज मधोक ने इस सुझाव का स्वागत किया था.

Zusammenstöße in Srinagar - indische Regierung will Hindus in Kaschmir ansiedeln
श्रीनगर में बिगड़ते हालाततस्वीर: AFP/Getty Images/Tauseef Mustafa

इस समय राजनीतिक रूप से जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच का संबंध टूट चुका है. पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों ने जम्मू में बीजेपी का और कश्मीर घाटी में मुफ्ती मुहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का वर्चस्व स्थापित कर दिया है। ऐसे में राज्य के तीनों अंचलों- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख को स्वायत्तता दिये जाने की मांग फिर से जोर पकड़ सकती है. यह तर्क भी फिर से दिया जा सकता है कि पाकिस्तान के प्रभाव को निरस्त करने के लिए ऐसा करना जरूरी है. एक संभावना यह भी है कि मुफ्ती के नर्म रुख के चलते आतंकवादियों और अलगाववादियों का मनोबल बढ़ेगा और पाकिस्तान को अधिक हस्तक्षेप करने का मौका मिलेगा. पाकिस्तान में जब भी नवाज शरीफ सत्ता में आते हैं, कश्मीर में पाकिस्तानी भूमिका भी बढ़ जाती है. भारत के साथ संबंध सुधारने के उनके चुनावी वादे भी चुनावी जुमले ही सिद्ध हो रहे हैं. देश के अंदरूनी हालात की गंभीरता से जनता का ध्यान हटाने के लिए नवाज शरीफ कश्मीर पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं. यदि ऐसा हुआ तो यह पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार