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जवाबदेही दिखाने की जरूरत

१९ जनवरी २०१५

लोकतंत्र में स्वतंत्र और निर्भीक मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है. हालांकि यह भी सच है कि अक्सर व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के कारण मीडिया अपना संतुलन खो बैठता है, खासकर ऐसे मामलों में जिनका संबंध प्रसिद्ध लोगों से होता है.

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तस्वीर: Fotolia/rosental

पिछले वर्ष 17 जनवरी को 52 वर्षीय सुनंदा पुष्कर संदेहास्पद स्थिति में दिल्ली के होटल लीला में मृत पायी गयी थीं. कुछ दिन पहले दिल्ली पुलिस ने उनकी मृत्यु को हत्या का मामला मानते हुए मामला दर्ज किया है. पिछले एक वर्ष से ही शशि थरूर मीडिया के निशाने पर हैं लेकिन अब तो मीडिया उनके पीछे ही पड़ गया है. टीवी समाचार चैनल टाइम्स नाउ इसमें सबसे आगे है और उसकी रिपोर्टिंग की टोन ऐसी है मानों इस बात में कोई संदेह ही नहीं है कि सुनंदा की मौत के पीछे शशि थरूर का हाथ है.

सभी जानते हैं कि लोकतंत्र में स्वतंत्र और निर्भीक मीडिया की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका है. राज्य अक्सर उसकी स्वतंत्रता पर किसी न किसी बहाने अंकुश लगाने की कोशिश करता है और नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत व्यक्ति, संगठन और मीडिया संस्थान इस कोशिश का विरोध करते हैं. इसलिए मीडिया की आलोचना करते समय ऐसे लोग हमेशा झिझकते हैं जो उसे स्वतंत्रता के साथ काम करते देखने चाहते हैं. इसके बावजूद यह भी सही है कि अक्सर व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के कारण मीडिया अपना संतुलन खो बैठता है, खासकर ऐसे अपराधों की रिपोर्टिंग करते वक्त जिनका संबंध प्रसिद्ध लोगों से होता है.

पुलिस द्वारा दी गई आधिकारिक और गैर-आधिकारिक जानकारी के आधार पर मीडिया में ऐसी विस्तृत और मनगढ़ंत कहानियां छा जाती हैं जिनका हकीकत के साथ कोई संबंध नहीं होता. लेकिन जब तक संदेह की धुंध साफ होती है, कई व्यक्तियों का नाम और मान-सम्मान मिट्टी में मिल चुका होता है. भारत की पुलिस यूं भी अदालत में केस हारने के लिए कुख्यात है. वह अक्सर अभियुक्त पर लगाए गए आरोपों को पुष्ट करने के लिए आवश्यक सुबूत अदालत के सामने पेश नहीं कर पाती, जिसके कारण अभियुक्त छूट जाते हैं. इनमें बहुत से दोषी भी होते हैं और बहुत से निर्दोष भी. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1972 से 2012 के बीच आपराधिक मामलों में सजा पाने वालों की संख्या में 40 प्रतिशत की गिरावट आयी है जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट को यह आदेश देना पड़ा है कि जांच में कोताही बरतने वाले पुलिसकर्मियों को सजा देने के लिए दिशा-निर्देश बनाए जाएं.

कुछ वर्ष पहले आरुषि हत्याकांड की जांच के दौरान ही मेरठ के पुलिस महानिरीक्षक ने बाकायदा संवाददाता सम्मेलन करके अनेक बातें कहीं थीं जिनसे आरुषि और उसके माता-पिता की छवि खराब होती थी. निठारी हत्याकांड में भी नौकर सुरिंदर कोली के साथ-साथ मालिक मोहिंदर सिंह पंढेर को भी दोषी की तरह पेश किया गया था लेकिन जहां कोली को मौत की सजा सुनाई गई, वहीं पंढेर साफ बच निकला. लेकिन इस क्रम में उसकी इज्जत को तो बट्टा लग ही गया. जिन आपराधिक मामलों में जाने-माने लोगों के अलावा सेक्स का पहलू भी होता है, उन्हें मीडिया कुछ ज्यादा ही उछलता है. केवल भारत में ही ऐसा होता हो, यह भी नहीं है. शायद ही दुनिया का कोई लोकतांत्रिक देश ऐसा हो जहां मीडिया इसी तरह आचरण न करता हो. लेकिन इससे उसका आचरण सही सिद्ध नहीं हो जाता. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ जवाबदेही और जिम्मेदारी भी जुड़ी है और मीडिया उनकी अनदेखी नहीं कर सकता.

शशि थरूर जाने-माने लेखक, सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं. उनकी पत्नी सुनंदा काफी ग्लैमरस महिला थीं. दोनों की ही पहले भी दो बार शादी हो चुकी थी. थरूर के एक पाकिस्तानी महिला पत्रकार के साथ प्रेम की पींगें बढ़ने की अफवाहें भी थीं. यानि यह एक ऐसा केस था जिसे मीडिया पूरी तरह से निचोड़ कर सनसनीखेज रिपोर्टिंग कर सकता था, और उसने ऐसा ही किया भी. उसकी इस कारगुजारी से एक बार फिर इस तरह के संवेदनशील मामलों में मीडिया की संवेदनहीनता का मुद्दा सार्वजनिक बहस के केंद्र में आ गया है. यदि मीडिया सरकारी अंकुश से बचना चाहता है, तो उसे आत्म-विश्लेषण और आत्म-परीक्षण करना ही होगा.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार