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मां का भरपूर साथ मिला: मल्लेश्वरी

३ अप्रैल २०१०

सौ साल से भी ज्यादा के ओलंपिक इतिहास में भारत ने अब तक सिर्फ सात व्यक्तिगत मेडल जीते हैं. इनमें से एक है महिला वेटलिफ्टर करनम्म मल्लेश्वरी के नाम जिन्होंने सन २००० में सिडनी खेलों में कांस्य पदक हासिल किया.

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मल्लेश्वरीतस्वीर: AP

आज मल्लेश्वरी भारतीय खाद्य निगम में एक सीनियर अफसर के ओहदे पर हैं. लेकिन अर्जुन पुरुस्कार, राजीव गाँधी खेल रत्न और पद्मश्री से नवाजी गयीं मल्लेश्वरी को ओलंपिक पदक जीतने और इस मुकाम पर पहुंचे के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े. मल्लेश्वरी भाग्यशाली हैं कि उनकी इस मुहिम में उनकी माता ने भरपूर साथ दिया और अगर यह कहा जाए की ओलंपिक पदक के पीछे मल्लेश्वरी की अपनी मेहनत और लगन के अलावा, उनकी माता का हाथ है तो शायद गलत न होगा.

पांच बहन और एक भाई के परिवार में मल्लेश्वरी की माता ने हमेशा अपने बच्चों को खेल के लिए आगे किया. ''मम्मी का मानना था कि खेल में अच्छा करने से अच्छी नौकरी मिल सकती है,'' कहना है मल्लेश्वरी का. और आज मल्लेश्वरी को दिल्ली के भीड़ भाड़ वाले क्नॉट प्लेस के इलाके में स्थित ऑफिस के शानदार कमरे में बैठा देख कर लगता है की उनकी माता की कामना पूरी हुई है.

लेकिन मल्लेश्वरी विशाखापतनम में अपनी छोटी सी दुनिया से ओलंपिक के अंतरराष्ट्रीय पदक मंच पर कैसे पहुंची?

''मेरी बड़ी बहन वेटलिफ्टिंग करती थी और उनको देख कर मुझे भी खेल में थोड़ी बहुत रूचि होने लगी थी. मैं उस समय स्कूल में थी जब दीदी १९९० के एशियन गेम्स की ट्रायल के लिए बंगलोर जा रही थी. मेरे माता पिता भी वहां जा रहे थे और क्योंकि मेरी स्कूल में छुट्टी थी तो मैं भी साथ चली गयी,'' उन दिनों को याद करती हुई मल्लेश्वरी कहती हैं.

यह संयोग ही था की बंगलोर में टिकटिकी लगाये ट्रायल देख रही मल्लेश्वरी पर रूसी कोच गेनेडी राबकोंन और नैशनल कोच सलवान की नज़र पड़ गयी. ''उन्होंने पूछा की क्या तुम वेटलिफ्टिंग करती हो और मेरे हाँ कहने पर मुझसे कहा कि करके दिखाओ. बस मैंने वहीँ किसी से ट्रैक सूट और टी शर्ट लिया और चढ़ गयी स्टेज पर. उन दोनों कोचों ने मुझ में प्रतिभा देखी और मुझे नेशनल कैम्प में रख लिया. बस वही से मेरे वेटलिफ्टिंग करियर की शुरुआत हुई,'' मल्लेश्वरी बताती हैं.

खेल शुरू तो हुआ, लेकिन सवाल था अच्छी सुविधाओं का. ''बस यह भी किस्मत थी की दीदी को दिल्ली में नौकरी मिल गयी और मैं उनके साथ आ गयी. यहाँ नेहरु स्टेडियम में रह कर हम दोनों ने प्रैक्टिस की और सिलसिला शुरू हो गया. उसके बाद जहाँ भी सुविधा मिलती या कैम्प लगता मैं चली जाती थी. करीब दस साल घर से दूर रहकर दिल्ली, बंगलोर और पटियाला में ट्रेनिंग करके सब हासिल कर सकी,'' एक एक दिन याद है उस सफ़र का मल्लेश्वरी को.

इस बीच राष्ट्रीय और एशियन स्तर पर अनगिनत पदक जीतने के बाद आये सिडनी में २००० के ओलंपिक खेल. '' मैं बहुत अच्छी फॉर्म में थी और गोल्ड मेडल के इरादे से गयी थी. लेकिन अगर मैं अपनी आखिरी लिफ्ट गलत न करती तो गोल्ड और ओलंपिक रिकॉर्ड दोनों ही मेरे नाम होते'', आज भी मलाल है मल्लेश्वरी को.

लेकिन एक एक पदक के लिए तरसते भारत के खेल प्रेमियों के लिए मल्लेश्वरी का कांस्य पदक गोल्ड मेडल से कम नहीं था. और उस पदक ने मल्लेश्वरी की ज़िन्दगी ही बदल डाली. मल्लेश्वरी कहती हैं, ''ओलंपिक के बाद एक अलग सी पहचान मिल गयी कि यह वो पहली लड़की है जिसने वज़न उठा कर भारत को पदक दिलाया.''

हालांकि मल्लेश्वरी को अपने माता पिता और ससुराल, दोनों से ही भरपूर सहयोग मिला लेकिन वो यह मानती हैं कि एक महिला खिलाड़ी की काफ़ी ज़िम्मेदारियां होती हैं. ''क्योंकि शादी के बाद घर और बच्चे की देखभाल का ज़िम्मा एक महिला के ऊपर आ जाता है इसलिए महिलाओं का खेल करियर जल्दी ख़तम हो जाता है,'' मल्लेश्वरी का मानना है.

दो पुत्रों की माँ मल्लेश्वरी आज वेटलिफ्टिंग तो नहीं करती लेकिन खेल से जुड़ी हुई हैं. भारतीय खाद्य निगम में खेल सँभालने के अलावा वो निगम की जन संपर्क अधिकारी भी हैं. और साथ ही भारतीय वेटलिफ्टिंग महासंघ की उपाध्यक्ष भी. लेकिन उन्हें अफ़सोस है कि खेल में डोपिंग सर चढ़ कर बोल रही है.'' ऐसा नहीं कि बाकी खेलों में डोपिंग नहीं है लेकिन वेटलिफ्टिंग में खिलाडियों की अपनी गलती से बदनामी ज्यादा ही हो रही है,'' मानना है ओलंपिक कांस्य पदक विजेता का.

समय था जब मल्लेश्वरी, कुंजरानी देवी और सानामाचा चानू वेटलिफ्टिंग की दुनिया में छाई हुई थी. लेकिन क्या है भविष्य वेटलिफ्टिंग का अब? ''फिलहाल तो कोई नहीं दिखता जो हमारी जगह ले सके, लेकिन ढूँढना पड़ेगा,'' मायूसी से मल्लेश्वरी कहती हैं.

और दिल्ली के राष्ट्रमंडल खेल में भारतीय वेटलिफ्टिंग का क्या होगा? ''मेडल तो मिलेंगे लेकिन परफोर्मेंस कैसी होगी यह नहीं पता,''

रिपोर्ट: नौरिस प्रीतम

संपादन: महेश झा