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चिराग तले अंधेरा

२२ अगस्त २०१५

उनका काम समाज में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचारों पर अंकुश लगाना है. लेकिन चिराग तले अंधेरे वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए वह खुद ही पुरुष अधिकारियों की यौन प्रताड़ना, मानसिक हिंसा और भेदभाव की शिकार हैं.

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तस्वीर: DW/P.M. Tewari

एक ही पद पर काम करने वाले पुलिस व महिला कर्मचारियों के कामकाज में भेदभाव साफ देखने को मिलता है. यूं भी पुलिस विभाग में महिलाओं का मतलब मातृत्व अवकाश कहा जाता है. पुरुष अधिकारियों का कहना है कि महिलाओं को मातृत्व अवकाश से फुरसत नहीं मिलती. इसलिए उनको किसी अहम पद की जिम्मेदारी नहीं सौंपी जाती. लेकिन दरअसल, यह पुरुष प्रधान समाज के अहं को संतुष्ट करने का बहाना है. यह सही है कि महिलाओं के साथ भेदभाव विभाग में भर्ती के समय से ही शुरू हो जाता है. उनकी भर्ती सबसे निचले पायदान यानी कांस्टेबल के पद ही ज्यादा होती है. उससे ऊपर के पदों पर भर्ती के लिए होने वाली परीक्षाओं में महिला उम्मीदवारों के साथ भेदभाव की कई मिसालें सामने आ चुकी हैं. कई मामलों में बेहतर योग्यता वाली महिलाएं इन परीक्षाओं में नाकाम रहती हैं जबकि उनसे कम योग्यता व बुद्धिमता वाले पुरुष साथी इनमें कामयाब हो जाते हैं. ऊपर के पदों पर पुरुष अधिकारियों की मानसिकता भी इसके लिए जिम्मेदार है. भर्ती के बाद उनके प्रशिक्षण में भी भेदभाव होता है. पुरुष साथियों को जहां कठिन प्रशिक्षण दिया जाता है वहीं महिलाओं को हल्की-फुल्की ट्रेनिंग दी जाती है. इसके पीछे आम धारणा यह होती है कि इन महिलाओं को कौन सा मोर्चे पर जाकर हिंसक भीड़ से निपटना है ? इनका असली काम तो थाने या पुलिस मुख्यालयों में बैठ कर टाइप करना ही है.

सामाजिक तौर पर जागरूक पश्चिम बंगाल में तो डेढ़ दशक पहले तक महिला आईपीएस अधिकारियों को पुलिस अधीक्षक जैसे अहम पद पर पोस्टिंग तक नहीं दी जाती थी. शुभ्रा शील नामक एक महिला अधिकारी को यहां लगभग छह साल तक सहायक पुलिस आयुक्त पद पर बनाए रखा गया जबकि इस दौरान उनके पुरुष साथियों को अहम पोस्टिंग से नवाजा जाता रहा. राज्य में महिला मुख्यमंत्री बनने के बाद भले महिला पुलिस थाने खुल गए हों और पुलिस में ज्यादा तादाद में महिलाओं की भर्ती की गई हो, लेकिन विभाग के अंदरूनी हालात में कोई बदलाव नहीं आया है. अब भी ऐसी महिला पुलिसकर्मी ऊपर के पुरुष अधिकारियों की दया पर जीने को मजबूर हैं. तमाम दूसरे सरकारी विभागों की तरह पुलिस विभाग में भी यौन उत्पीड़न विरोधी शाखा खोली गई है. लेकिन वहां शिकायत करने की स्थिति में सजा के तौर पर इन महिलाओं का तबादला दूर-दराज के उपद्रवी इलाकों में कर दिया जाता है. अपने करियर व घर को बचाने के लिए अक्सर महिला कर्मचारी अपने पुरुष अधिकारियों की मनमानी झेलने पर मजबूर हैं. आखिर वे शिकायत करें भी तो किससे ? ऊपर आला पदों पर तो तमाम पुरुष अधिकारी बैठे हैं. ऐसे में यौन प्रताड़ना के एकाध मामले अगर सामने आते भी हैं तो उनको दबा दिया जाता है. शिकायत करने वाली महिला के जिम्मे बदनामी के सिवा कुछ हाथ नहीं आता. अपनी सहकर्मी की हालत देख कर दूसरी महिलाएं डर के मारे चुप्पी साधने पर मजबूर हैं.

Indien Tag der Unabhängigkeit in New Delhi
बराबर सम्मान या फिर दिखावे की कोशिशतस्वीर: UNI

अब भी बंगाल समेत दूसरे राज्यों में किसी महिला पुलिस कर्मचारी को किसी अहम पद पर तैनात नहीं किया जाता. दरअसल, समय बदलने के बावजूद सोच जस की तस है. इसलिए उनको सहायक के तौर पर पुलिस मुख्यालय या थानों में तैनात रखा जाता है. बंगाल के पुलिस मुख्यालय में भी ऐसी महिला कर्मचारी रिजर्व के तौर पर तैनात हैं जहां उनका मुख्य काम अपने अधिकारियों की तीमारदारी करना है. विडंबना यह है कि वहां महिला कर्मचारियों के लिए न तो ठीक से बैठने की व्यवस्था होती है और न ही शौचालय आदि की.

पुलिस में महिलाओं की स्थिति पर पांच साल तक शोध के बाद डाक्टरेट हासिल करने वाली टुम्पा मुखर्जी कहती हैं, "पुरुष प्रधान समाज में हर जगह महिलाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता है और पुलिस विभाग भी इसका अपवाद नहीं है." टुम्पा के मुताबिक, खुद को महिलाओं से बेहतर मानने की पुरु मानसिकता ही इसकी जिम्मादर है. वह बताती हैं कि अगर कहीं कोई महिला उच्च पद पर है तो उसके मातहत काम करने वाले पुरुष कर्मचारियों का रवैया उसके प्रति ठीक नहीं होता. वह पीठ पीछे उसकी खामियां गिनाते नजर आते हैं. पुलिस विभाग में काम करने वाली महिलाओं के साथ अब भी पेशेवर व मानवीय व्यवहार नहीं किया जाता. टुम्पा ने पुलिस में महिलाओं की दयनीय स्थिति और उनकी यौन प्रताणना जैसे ज्वंलत मुद्दों पर हाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को एक खुला खत भी लिखा था. लेकिन बावजूद उसके हालात जरा भी नहीं बदले हैं.

दरअसल, बदलते दौर में जब महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं, समाज के दूसरे तबकों की तरह पुलिस में भी महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार प्रासंगिक है. लेकिन इसके लिए सरकारी नीतियों के अलावा समाज की मानसिकता में भी बदलाव जरूरी है. ऐसा नहीं होने तक चिराग तले अंधेरा कायम रहेगा. दूसरों के दुख-दर्द को दूर करने का जिम्मा उठाए यह महिला पुलिस कर्मचारी अपने खिलाफ होने वाले अत्याचारों को आखिर कब तक सहती रहेगीं ? इस लाख टके के सवाल का जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है.

ब्लॉगः प्रभाकर, कोलकाता