महिलाओं को लपेटे में ले रहा प्रोपगैंडा
२९ मई २०१५जब ब्रिटेन की तीन स्कूली लड़कियों ने सीरिया बॉर्डर पार किया, जब एक 14 साल की गर्भवती किशोरी अल्पाइन इलाके में अपने घर से दूसरी बार भाग निकली या जब साउथ ऑफ फ्रांस की एक लड़की ने अपनी पहली विदेश यात्रा के टिकट कराए - वे सब एक ऐसी जगह जा रही थीं जहां से वापसी मुमकिन नहीं.
एक नई रिसर्च के आंकड़े बताते हैं कि सीरिया में आईएस के साथ जाकर जुड़ने वाली पश्चिमी देशों की अनुमानत: 600 लड़कियों और महिलाओं में से केवल दो ही युद्ध क्षेत्र से बाहर आ सकीं. इसकी तुलना में पुरुषों में से करीब 30 फीसदी विदेशी लड़ाके या तो आईएस को छोड़ चुके हैं या उन्हें छोड़कर निकलने वाले हैं. सीरिया और इराक जैसे आईएस प्रभावित इलाकों से लौटने वालों पर नजर रखने वाली यूरोपीय सरकारों की निगरानी संस्थाओं ने ये आंकड़े मुहैया कराए हैं.
रिसर्च में यह भी बताया गया है कि मीडिया की फैलाई गई धारणा के विपरीत सीरिया जाने वाली कई पश्चिमी देशों की युवा महिलाएं वहां "जिहादी दुल्हन" बनने नहीं जातीं. रिसर्चरों का मानना है कि यह एक जटिल मामले को बहुत सरल तरीके से पेश करने की कोशिश जैसा है.
लंदन के किंग्स कॉलेज के इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रेटीजिक डायलॉग एंड इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्टडी ऑफ रेडिकलाइजेशन की यह रिपोर्ट बताती है कि युवा महिलाओं के आईएस के साथ जुड़ने के पीछे सबसे बड़े कारण हैं - मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों पर गुस्सा और समान विचारों वाले एक समुदाय का हिस्सा बनने की इच्छा - जिसे सिस्टरहुड कहा जा रहा है. रिसर्चरों ने चेताया है कि यदि पश्चिमी समाज और महिलाओं को इस रास्ते पर बढ़ने से रोकना चाहता है तो उसे इसके पीछे उनके मकसद को समझना होगा. रिपोर्ट के लेखकों एरिन सॉल्टमैन और मेलनी स्मिथ ने पाया कि सबको मासूम, बहकाई हुई, किसी तरह से ढाली गई मानना उनके खतरों को कम करके आंकना होगा.
साल्टमैन ने कहा, "महिलाएं हमेशा से हिंसक अतिवादिता में शामिल रही हैं, लेकिन इस्लामिक स्टेट को समर्थन देने वाली महिलाओं की संख्या "अभूतपूर्व" है. इसकी वजहें गिनाते हुए सॉल्टमैन ने बताया कि आईएस की ओर से महिला वॉलंटियरों को आ रहा सीधा बुलावा, उनकी ऑनलाइन भर्ती एक "बेहद तेज, पॉप कल्चर" के जड़ जमाने जैसा है.
आईएस के नियंत्रण वाले क्षेत्र में महिलाओं की मुख्य जिम्मेदारी एक बीवी और "जिहादियों की अहली पीढ़ी की मां" बनने की है. रिसर्च में बताया गया कि इसके अलावा महिलाएं सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर आतंकी संगठन के लिए महत्वपूर्ण प्रोपगैंडा फैलाने का काम भी अंजाम दे रही हैं और ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को अपने साथ जोड़ने की कोशिश भी. कम उम्र की लड़कियां अक्सर इनके बहकावे में आ जाती हैं क्योंकि कच्ची उम्र में वे खुद भी अपने जीवन का मकसद और अपनी पहचान तलाशने की प्रक्रिया से गुजर रही होती हैं.
रिसर्चरों का सुझाव है कि खासतौर पर महिलाओं को ध्यान में रखकर ऐसे संदेश भेजे जाने की जरूरत हैं जिससे उन्हें आईएस का असली चेहरा दिखाई दे और वे किसी छद्म आदर्शवाद की शिकार होकर उनके आतंक का हिस्सा ना बन जाएं. इसके अलावा सीरिया और इराक में सच्चाई से रूबरू होकर वहां से लौट आने वालों को भी वापस समाज में जोड़ने और उनकी मदद करने की भी व्यवस्था होनी चाहिए.
आरआर/एमजे (एपी, रॉयटर्स)