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महती चुनौती है शरणार्थी संकट

२४ दिसम्बर २०१५

जर्मनी में इतने सारे आप्रवासी पहले कभी नहीं आए जितने इस साल के कुछ महीनों में आए हैं. डॉयचे वेले के मुख्य संपादक अलेक्जांडर कुदाशेफ का कहना है कि यह आप्रवासियों और जर्मनी के निवासियों दोनों के लिए चुनौती है.

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तस्वीर: Getty Images/J. Simon

जर्मनी ने इस साल दस लाख शरणार्थियों, या शायद उससे भी ज्यादा को पनाह दी है. दस लाख लोग जो आसरा, सुरक्षा और नई जिंदगी की उम्मीद खोज रहे हैं. दस लाख लोग यानि कि एक महानगर. दस लाख लोग जिन्हें मकान की जरूरत है, रोजगार की जरूरत है, लेकिन उससे पहले उन्हें जर्मन भाषा सीखनी होगी. बच्चों को किंडरगार्टन या स्कूल में और वयस्कों को भाषा के कोर्सों में. जर्मनों के लिए एक बड़ी चुनौती, लेकिन निश्चित तौर पर खुद शरणार्थियों के लिए भी. शरणार्थियों की चुनौती जर्मनी के लिए संभवतः एक या दो पीढ़ी की चुनौती है.

अलग अलग मूल्य

अधिकांश शरणार्थी सीरिया, इराक, अफगानिस्तान और एरिट्रिया से आए हैं. वे ऐसे देशों, समाजों और संस्कृतियों से आ रहे हैं जहां आजादी नहीं है. वे सख्त धार्मिक बंधनों वाले समाजों से आ रहे हैं, जिनमें परिवार या कबीला व्यक्ति से ज्यादा अहम होता है. वे पितृसत्तात्मक संरचनाओं वाले इलाकों से आ रहे हैं और उन इलाकों से जहां राज्य सहारा नहीं बल्कि दुश्मन है. और वे ऐसे समाज में आए हैं जो इसके ठीक विपरीत है. जर्मनी में व्यक्ति का महत्व समूह से ज्यादा है. यदि परिवार नहीं रहता तो राज्य जिंदगी के जोखिमों में सहारा है, यहां पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता है, और हर किसी को यौन आत्मनिर्णय का अधिकार है. जर्मनी एक खुला समाज है.

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अलेक्जांडर कुदाशेफ

टकराव की स्थिति में दोनों ही पक्षों को बदलना होगा, एक दूसरे का ख्याल रखना सीखना होगा, हालांकि शरणार्थियों से ज्यादा की मांग की जाएगी. उन्होंने जर्मनी को अपना नया बसेरा चुना है. उन्हें अपने को यहां की नैतिकताओं, रिवाजों और परंपराओं के अनुरूप ढालना होगा. उन्हें उसका भी सम्मान करना होगा जो उन्हें पराया लगता हो या शायद घिनौना भी. उन्हें अपनी सांस्कृतिक और भाषाई पहचान पूरी तरह छोड़े बिना यहां की जिंदगी को स्वीकार करना होगा. जर्मनी सीरिया या एरिट्रिया नहीं है, यहां वैसे नहीं रहा जा सकता जैसे वहां पर. शरणार्थियों को जर्मनी में अपनी नई जिंदगी में जिज्ञासा दिखानी होगी.

एक दूसरे पर असर

लेकिन जर्मनी भी बदलेगा. चांसलर अंगेला मैर्केल का कहना है कि 25 साल में यह देश और खुला, जिज्ञासु, रोमांचक और सहिष्णु होगा. यह बहुत बड़ा दावा है, क्योंकि आज का जर्मनी रोजमर्रे में ऐसा हो चुका है. इसके बावजूद जर्मनी बदलेगा. वह अपनी आधुनिक पहचान की आत्मविश्वास के साथ व्याख्या करेगा और पराए में दिलचस्पी लेना सीखेगा. इस्लामी संस्कृति सिर्फ शरीयत नहीं है, सिर्फ महिलाओं का दमन नहीं है, सिर्फ बुरका नहीं है. वह ये सब रोजमर्रे में जरूर है, लेकिन वह मध्य युग में अस्त हुई ग्रीक संस्कृति की रक्षक भी है. उसके पास स्मारकों, साहित्य और दर्शन का खजाना है. समय आ गया है कि हम पूर्वाग्रह के बिना इस संस्कृति के करीब जाएं जैसा कि गोएथे ने वेस्ट-ईस्ट दीवान में किया था.

जर्मनी में शरणार्थी नीति दो मिथ्या धारणाओं के साथ लिपटी हुई है. पहले को जर्मनी के लोग इस समय विदा कह रहे हैं कि जर्मनी आप्रवासन का देश नहीं है. यह पहले भी सच नहीं था, आज तो कतई नहीं है. हम आकर्षक देश हैं, लोग यहां आना चाहते हैं. दूसरी धारणा है कि शरणार्थी नीति आबादी की समस्या हल करने के लिए आप्रवासन नीति है. यह राजनीतिक तौर पर बेतुका है. आप्रवासियों को चुना जाता है, शरणार्थी खुद आते हैं. फिर भी शरणार्थियों को जितनी जल्दी हो सके समाज में घुलाना मिलाना चाहिए, भाषाई और रोजगार के तौर पर और मानसिक रूप से भी. उन्होंने जर्मनी को उम्मीद के देश के रूप में चुना है. उन्हें इस खुले समाज को अपना बनाना है.

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