भालुओं को मिली नयी जिंदगी
१६ जनवरी २०१७आज रोज को आगरा के भालुओ के रेस्क्यू सेंटर के सभी कर्मचारी बहुत प्यार करते हैं. रोज भी हर सुबह उनके साथ खेलती हैं. रोज इतना घुल मिल गयी है की कोई बता नहीं सकता की उसे यहां आये हुए एक साल ही हुआ हैं. रोज, जो एक मादा भालू है दूसरे लगभग 200 भालुओं के साथ आगरा में भालुओं के रेस्क्यू सेंटर में रहती हैं. जब वो यहां आई थी तो उसका दाहिना पैर कट चुका था और डॉक्टरों की देखभाल से आज वो स्वस्थ हैं.
नाचना भले ही किसी के मनोरंजन के लिए हो लेकिन उससे भालुओं की जिंदगी तबाह हो जाती हैं. पहले वो अपनी प्राकृतिक रहने की जगह से दूर हो जाते हैं दूसरे उनको शारीरिक रूप से यातनाएं दी जाती हैं जैसे उनके नथुनों में गर्म सलाख से छेद कर के रस्सी डालना जिसका सिरा नचाने वाले के हाथ में रहता हैं. ये भालू मानसिक रूप से भी प्रताड़ना झेलते हैं और अपनी प्राकृतिक क्रिया जैसे पेड़ पर चढ़ना, मिटटी खोद कर बिलों से चींटी ढूंढना, उछल कूद मचाना और दूसरे भालुओं से संपर्क करना सब भूल जाते हैं.
सदियों से चली आ रही इस परम्परा को पहले से ही वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत गैरकानूनी करार दिया गया हैं लेकिन कोई पहल नहीं हुई. बात ये भी थी कि इन भालुओं को आजाद कर के कहां पर रखा जाए. सन 2009 में गीता शेषमणि और कार्तिक सत्यनारायण ने अपनी संस्था वाइल्डलाइफ एस ओ एस के जरिये एक अध्ययन किया और पाया की पूरे भारत में लगभग 1,200 नाचने वाले भालू हैं. उन्होंने चार सेंटर—आगरा, बेंगलुरू, भोपाल और पुरुलिया में भालुओं के रेस्क्यू के लिए भारत में खोले. बहुत मुश्किल और समझाने एवं सरकार के सहयोग के बाद आज उन्होंने लगभग 600 भालुओं को आजाद करवा लिया हैं. ये भालू उनके रेस्क्यू सेंटर में रहते हैं जिसमे अकेले आगरा सेंटर जो की उत्तर प्रदेश के वन विभाग के सहयोग से चलता है, में ही 202 भालू हैं. ये सारे भालू या तो कलंदर से बचाए गए हैं या फिर उनकी रजामंदी से सेंटर में रखे गए हैं. कलंदरो को भी बहुत बार समझाया गया है और उनको दूसरा पेशा चुनने के लिए ट्रेनिंग दी गयी है ताकि वो अपना जीवन चला सके.
संस्था की अरिनिता संडिल्य बताती हैं कि ये भालू बहुत दर्दनाक दशा में सेंटर में लाये जाते हैं. वर्षो तक उन्होंने सिर्फ दर्द, भूख और थकन झेली होती हैं. सबके नाक में छेद करके रस्सी पड़ी होती है और कुछ भालू अपना स्वाभाविक स्वाभाव तक भूल चुके होते हैं. जबरदस्त मानसिक अवसाद में इन भालुओं को वापस अपनी जिंदगी में लौटना बहुत मुश्किल होता हैं. लगभग 90 दिन के समय में इन पर डॉक्टर और स्टाफ नजर रखता हैं फिर कोशिश होती हैं कि जिस ग्रुप में वो घुल-मिल सके उसमें उनको रखना. खुशी होती हैं ये देख कर की भालू फिर से पेड़ पर चढ़ना, भोजन की खोज करना और दुसरे भालुओं के साथ रहना धीरे धीरे सीख लेते हैं.
इधर भालुओं के ऊपर एक और आफत आ गयी हैं. उत्तरी एशिया के देशों में उनके अंगो की मांग बढ़ गयी हैं और अब छोटे भालुओ के बच्चों की तस्करी भी शुरू हो गयी हैं. ऐसे में तस्करों से छुडाये गए भालू के बच्चे भी रेस्क्यू सेंटर पहुचाये जा रहे हैं. धीरे धीरे ही सही लेकिन भालुओं को भी अब भारत में वापस अपनी जिंदगी जीने और नचाने वाले कलंदरो से छुटकारा मिलना संभव दिख रहा हैं.
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