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भारत पर निर्भर है दुनिया का तपेदिक नियंत्रण

प्रभाकर२१ नवम्बर २०१५

तपेदिक की बीमारी और उससे हुई सवा दो लाख मौतों के कारण पिछले साल भारत दुनिया भर में चोटी पर रहा. विश्व स्वास्थ्य संगठन इस महामारी को 2030 तक खत्म करने की लड़ाई में भारत से खर्च बढ़ाने की मांग की है.

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तस्वीर: imago

भारत में टीबी यानि तपेदिक पर नियंत्रण के सवाल पर सरकारें भले विभिन्न योजनाओं की कामयाबी का दावा कर अपनी पीठ थपथपा रही हों, हकीकत उसके उलट है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि इस मद में धन की कमी के वजह से इस जानलेवा बीमारी के खिलाफ वैश्विक लड़ाई भी कमजोर पड़ रही है. वैसे भी केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधित परियोजनाओं के लिए धन की कटौती के फैसले के लिए काफी आलोचना झेलनी पड़ रही है. यह पहला मौका है जब सबसे जानलेवा बीमारी की सूची में टीबी ने एचआईवी/एड्स को पछाड़ दिया है और पहले नंबर पर पहुंच गई है.

Bildergalerie Tuberkulose Ratten
तस्वीर: Brian Johnson

दुनिया भर में टीबी के जितने मामले हर साल सामने आते हैं उनमें 23 फीसदी भारत में ही होते हैं. यहां हर साल कोई सवा दो लाख इस बीमारी की चपेट में आकर जान से हाथ धो रहे हैं. टीबी पर नियंत्रण के लिए चलाई गई विभिन्न परियोजनाओं की वजह से वर्ष 1990 से 2013 के दौरान इस पर अंकुश लगाने में कुछ हद तक कामयाबी जरूरी मिली थी. लेकिन इसके प्रसार और भयावह आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए यह कामयाबी नाकाफी ही लगती है.

विशेषज्ञों का कहना है कि गरीबी, सरकारी अस्पातलों में डाक्टरों और दवाओं की कमी और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं के लिए धन की कमी इस जानलेवा बीमारी पर अंकुश लगाने की राह में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रही है. स्वास्थ्य विशेषज्ञ डा. मनोहर गाएन कहते हैं, "केंद्र सरकारों की प्राथमिकताएं हाल के वर्षों में बदल गई हैं. राजनीतिक हितों को साधने के प्रयास में जनस्वास्थ्य से संबंधित योजनाएं खटाई में पड़ गई हैं." वह कहते हैं कि भारत में इस बीमारी पर ठोस अंकुश के बिना इसके खिलाफ जारी वैश्विक लड़ाई कमजोर पड़ती जा रही है. यह बेहद खतरनाक स्थिति है.

Indien Tuberkulose Krankenhaus in Mumbai
तस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

बीते साल सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने विभिन्न रोकथाम व कल्याणमूलक परियोजनाओं के मद में धन की लगातार कटौती की है. एनडीए से पहले केंद्र में सत्ता चलाने वाली यूपीए सरकार का रिकार्ड भी इस मामले में कोई बेहतर नहीं है. आंकड़े अपनी कहानी खुद ही कहते हैं. केंद्र ने वर्ष 2012 से 2015 के दौरान टीबी पर अंकुश लगाने से संबंधित परियोजनाओं के लिए महज 24.30 करोड़ डॉलर की रकम जारी की थी जबकि संबंधित संस्थाओं ने इन योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए कम से कम 43 करोड़ डालर की मांग की थी. जाहिर है इससे उन परियोजनाओं को असरदार तरीके से लागू नहीं किया जा सकता था. महज कागजी खानापूरी के चलते कई जगह कामयाबी के थोथे दावे जरूर किए गए. लेकिन अब विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट ने उनकी पोल खोल दी है.

Bekämpfung von TB in Indien und die Behandlung von betroffenen Patienten
तस्वीर: DW/B. Das

भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की बदहाली किसी से छिपी नहीं है. शहरों में तो निजी नर्सिंग होम और अस्पतालों की वजह से तस्वीर कुछ उजली नजर आती है. लेकिन सवाल यह है कि इन महंगे अस्पतालों में इलाज का खर्च उठाने में कितने लोग सक्षम हैं? छोटे शहरों व कस्बों में तो सरकारी अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र बदहाली के शिकार हैं. वहां न तो ढंग के अस्पताल हैं और न ही दवाएं. देश की बड़ी आबादी तमाम बीमारियों के इलाज के लिए उन पर ही निर्भर है. लेकिन जो खुद बीमार है वह भला दूसरे मरीजों का इलाज कैसे कर सकता है. एक के बाद एक केंद्र की सत्ता में आने वाले सरकारों ने इस मुद्दे पर कोई ध्यान नहीं दिया है. नतीजतन स्थिति और खराब हुई है. कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाली दवा कंपनियों, डाक्टरों और निजी अस्पतालों की मिलीभगत के चलते मरीजों को बाहर से महंगी दवाएं खरीदने को कह दिया जाता है. लेकिन इनको खरीदने में असमर्थ होने की वजह से गरीब लोग झोला छाप डाक्टरों और झाड़-फूंक के जरिए ही टीबी को ठीक करने की उम्मीद लगाए रहते हैं और धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ते रहते हैं. यही वजह है कि भारत में यह बीमारी लगातार अपना दायरा बढ़ा रही है.

Bekämpfung von TB in Indien und die Behandlung von betroffenen Patienten
तस्वीर: DW/B. Das

कुछ साल पहले सरकार ने अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन छपवा कर टीबी पर अंकुश लगाने में बड़ी कामयाबी मिलने का दावा किया था. लेकिन मरीजों के ताजा आंकड़ों से साफ है कि वह सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी थी. अब भी दूर-दराज के इलाकों के टीबी के मरीजों का आंकड़ा सामने नहीं आ सका है. इससे साफ है कि असली मरीजों की तादाद कहीं ज्यादा है. बावजूद इसके सरकार लगातार सार्वजनिक स्वास्थ्य के मद में धन की कटौती करने में जुटी है.

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को दूसरे गैर-जरूरी खर्चों में कटौती कर सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधित परियोजनाओं को पर्याप्त धन मुहैया कराना होगा. टीबी के खिलाफ आधी-अधूरी लड़ाई खतरनाक साबित हो सकती है और देश की भावी पीढ़ी को इसका गंभीर खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. टीबी विशेषज्ञ डा. आरएस महतो कहते हैं, "सत्तारुढ़ राजनीतिक पार्टियां चुनाव अभियान में जितनी रकम खर्च कर देती हैं उसका एक हिस्सा भी अगर टीबी पर नियंत्रण की योजनाओं में लगाया जाए तो मौजूदा तस्वीर का रुख काफी बेहतर हो सकता है." #

विशेषज्ञों के मुताबिक, सरकार को इस क्षेत्र में काम करने वाले निजी संस्थानों को साथ में लेकर एक ठोस अभियान शुरू करना होगा और साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस जानलेवा बीमारी पर काबू पाने की राह में पैसों की कमी आड़े नहीं आए. ऐसा नहीं हुआ तो इससे मरने वालों की तादाद लगातार तेजी से बढ़ेगी. लेकिन क्या सरकार इस पर ध्यान देगी? क्या विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट से उसकी कुंभकर्णी नींद टूटेगी? इन और ऐसे कई अन्य सवालों के जवाब ही देश और दुनिया में टीबी पर अंकुश लगाने की लड़ाई की दशा-दिशा तय करेंगे.