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मौत की सजा का खात्मा जरूरी

२५ सितम्बर २०१५

सुप्रीम कोर्ट में चल रहे एक ताजा मामले ने भारत में जारी मौत की सजा पर एक बार फिर बहस तेज कर दी है. यह देश में सबसे विवादित मुद्दा है. लेकिन हर समस्या की तरह इसके पक्ष और समर्थन में दलीलों की कमी नहीं है.

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तस्वीर: vkara - Fotolia.com

अब छत्तीसगढ़ से संबंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने सवाल उठाया है कि मौत की सजा खत्म कर देने की हालत में आरोपी कहीं पांच साल की जेल के बाद छूट तो नहीं जाएंगे. अदालत ने यह भी पूछा है कि क्या आजीवन कारावास की सजा के तहत आरोपी के आजीवन जेल में रहने का प्रावधान किया जाना चाहिए ? इन सवालों के जवाब पर ही पूरी बहस टिकी है.

वैसे, जर्मनी समेत दुनिया भर के 160 से ज्यादा देशों ने मौत से संबंधित कानूनों को खत्म कर दिया है. लेकिन दुर्भाग्य से भारत उन 60 देशों में शामिल है जहां यह सजा अब भी दी जाती है. तमाम कानूनी विशेषज्ञ और मानवाधिकार संगठन लंबे अरसे से इस सजा को खत्म करने की मांग कर रहे हैं. उनकी दलील है कि न्यायिक प्रणाली की खामियों के चलते अगर किसी को दोषी मान कर पांसी पर चढ़ा दिया जाए और बाद में उसके बेकसूर होने के सबूत सामने आएं तो क्या वह गलती सुधारी जा सकती है? मौत की सजा के समर्थक लोगों के पास इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं है. उनकी दलील है कि इससे अपराधियों में खौफ बना रहेगा और दूसरे लोग इसे देख कर वैसा कोई आपराधिक कृत्य करने से बचेंगे.

लेकिन इस सजा का विरोध कर रहे लोग इस दलील को निराधार करार देते हैं. उनका कहना है कि अब तक का इतिहास गवाह है कि मौत की सजा जारी रहने के बावजूद भारत में अपराध की दरों में कोई गिरावट नहीं आई है. इनका सवाल है कि क्या वर्ष 2004 में कोलकाता के एक बहुचर्चित रेप कांड में धनंजय चटर्जी को फांसी पर लटकाने के बाद देश में बलात्कार कम हो गए हैं? इस सजा का समर्थन करने वालों की दलील है कि किसी बलात्कारी या हत्यारे को आजीवन कारावास की सजा देने के बाद उसे जेल में रख कर जीवित रहने तक मुफ्त भोजन देना कहां तक उचित है.

दोनों पक्षों के पास अपने-अपने दावों के समर्थन में दलीलें हैं. वैसे, मौत की सजा हमारी सामाजिक व्यवस्था और भेदभाव से भी जुड़ी है. ऐसे मामलों की कमी नहीं है कि भारतीय न्याय प्रणाली की खामियों का फायदा उठा कर ताकतवर लोग ऐसी सजा से बच जाते हैं. आमतौर पर कमजोर व पिछड़े तबके के लोगों को ही फांसी पर चढ़ना पड़ता है क्योंकि वे अपने बचाव में ऐसे धुरंधर वकीलों को नहीं खड़ा कर सकते जो अदालतों में सच को झूठ और झूठ को सच साबित कर सके. इसके अलावा कई ऐसे मामले भी सामने आए हैं जहां किसी की हत्या के अपराध में आरोपी को फांसी पर चढ़ाने के बाद वह व्यक्ति जीवित लौट आता है. ऐसे में क्या फांसी पर चढ़ने वाला वह व्यक्ति दोबारा जीवित हो सकता है? यह तो एक तरह से न्यायिक हत्या ही कही जाएगी. आखिर उसे और उसके परिवार को इंसाफ कहां से मिलेगा?

अब इस बहस को आगे बढ़ाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक माकूल सवाल उठाया है कि आजीवन कारावस की सजा पाने वाले आमतौर पर 14 साल जेल काटने के बाद रिहा हो जाते हैं. अदालत का सवाल है कि क्या मौजूदा प्रावधानों को बदल कर यह तय कर दिया जाए कि ऐसी सजा पाने वाले को आजीवन जेल में ही रहना होगा?

देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे के.जी.बालकृष्णन भी मौत की सजा को जारी रखने के पक्ष में हैं. लेकिन हकीकत यह है कि देश-दुनिया के बदलते हालात में इस सजा को अब भी जारी रखना सामंती मानसिकता का प्रतीक है. भारत के ज्यादातर कानून ब्रिटिश शासनकाल के दौरान बने हैं. तब की और अब की सामाजिक परिस्थिति में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है. ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले भारत को भी मौत की सजा खत्म कर पूरी दुनिया के सामने एक मिसाल पेश करनी चाहिए.

मौत की सजा के समर्थकों की दलील है कि पेशेवर अपराधी न्याय व्यवस्था की खामियों का लाभ उठा कर कुछ साल में जेल से बाहर आकर दोबारा अपराध में लिप्त हो जाएंगे. लेकिन उनके इस दावे में खास दम नहीं नजर आता. भारतीय दंड संहिता में आमूलचूल बदलाव अब समय की मांग है. मौत की सजा में अपराधी को पाश्चाताप करने का मौका भी नहीं मिलता. ऐसे में यह जरूरी है कि इस सजा को खत्म कर दूसरी कड़ी सजा का प्रावधान हो, जहां अपराधी जीवित रह कर अपने किए पर पाश्चाताप कर खुद को सुधारने की दिशा में पहल कर सके. इससे प्रेरणा लेकर दूसरे लोग भी अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे.

ब्लॉगः प्रभाकर