भयावह है भारत में टीबी की हकीकत
२५ अगस्त २०१६इस नए खुलासे के बाद तपेदिक के मामले में आंकड़ों को दुरुस्त करने की कवायद शुरू होने का अनुमान है. लंदन के इंपीरियल कालेज की ओर से किया गया यह अध्ययन लैंसेट इन्फेक्शंस डिजीज जर्नल में छपा है. वर्ष 2014 में निजी क्षेत्र में टीबी की दवाओं की बिक्री के आंकड़ों से अनुमान लगाया गया था कि देश में 22 लाख लोग इस बीमारी की चपेट में हैं. अब ताजा अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों व स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने चेताया है कि आंकड़ों को कम करने के दूरगामी नतीजे हो सकते हैं. भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने वर्ष 2014 में टीबी के 63 लाख मामले सामने आने की बात कही थी. इनमें से एक-तिहाई मामले भारत में थे. यानी इस मामले में यह पहले नंबर पर था. उसके बाद सरकार के तमाम दावों के बावजूद हालात सुधरने की बजाय बदतर ही हुए हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल में अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि इस मद में धन की कमी की वजह से इस जानलेवा बीमारी के खिलाफ वैश्विक लड़ाई भी कमजोर पड़ रही है.
लाखों मौत का कारण
मोटे अनुमान के मुताबिक, भारत में हर साल कोई सवा दो लाख लोग इस बीमारी के चलते मौत के मुंह में समा रहे हैं. टीबी पर नियंत्रण के लिए चलाई गई विभिन्न परियोजनाओं की वजह से वर्ष 1990 से 2013 के दौरान इस पर अंकुश लगाने में कुछ हद तक कामयाबी जरूर मिली थी. लेकिन दो साल पहले केंद्र में नई सरकार के सत्ता में आने के बाद इस मद में धन की कटौती का इन योजनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ा और अब यह बेअसर साबित हो रही है.
नए शोध में कहा गया है कि भारत में टीबी के आंकड़े घटा कर बताए जाते हैं. वर्ष 2014 में लगभग 14.2 लाख मरीजों ने निजी क्षेत्र में इस बीमारी का इलाज कराया था. दरअसल, सरकारी सेवाओं की बदहाली की वजह से ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले लोग निजी क्षेत्र को ही तरजीह देते हैं. शोध के मुताबिक, निजी क्षेत्र टीबी के आंकड़े सरकार को सौंपने में रुचि नहीं दिखाते. ऐसे में भारत में टीबी मरीजों की वास्तविक तादाद का अनुमान लगाना बेहद मुश्किल है. इस शोध टीम के प्रमुख डा. निमालान अरिनामिन्पाथी कहते हैं, "दुनिया में टीबी सबसे जानलेवा बीमारी के तौर पर उभरी है. बावजूद इसके इससे सबसे ज्यादा प्रभावित देश भारत में इस समस्या की गंभीरता का आकलन करना मुश्किल है."
अपने शोध के तहत डा. निमालान और उनकी टीम ने पहले देश भर में निजी क्षेत्र में टीबी की दवाओं की बिक्री के आंकड़े जुटाए और फिर उसके आधार पर मरीजों की तादाद का अनुमान लगाया. इससे यह तथ्य सामने आया कि वर्ष 2014 में निजी क्षेत्र में टीबी के 22 लाख मामले आए थे. यह आंकड़ा असली अनुमान से दो से तीन गुना ज्यादा है.
बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं
भारत में तमाम दावों के बावजूद स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली किसी से छिपी नहीं है. विशेषज्ञों का कहना है कि गरीबी और खासकर ग्रामीण इलाकों में स्थित सरकारी अस्पातलों और स्वास्थ्य केंद्रों में डाक्टरों और दवाओं की भारी कमी है. इसके साथ ही सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं के लिए धन की कमी भी इस बीमारी पर अंकुश लगाने की राह में सबसे बड़ी बाधा हैं. पैसे वाले लोग तो निजी क्षेत्र में इलाज करा लेते हैं. लेकिन केंद्र ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया है जिसके तहत टीबी के मामलों की सूचना सरकार को देना अनिवार्य हो. ऐसे में असली तस्वीर सामने नहीं आ पाती. विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को तुरंत ऐसा कानून बनाना चाहिए.
केंद्र सरकार ने वर्ष 2012 से 2015 के दौरान टीबी पर अंकुश लगाने से संबंधित परियोजनाओं के लिए महज 24.30 करोड़ डॉलर की रकम जारी की थी जबकि संबंधित संस्थाओं ने इन योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए कम से कम 43.20 करोड़ डॉलर की मांग की थी. बावजूद इसके सरकार समय-समय पर इस क्षेत्र में कामयाबी के दावे करती रही है. लेकिन अब ताजा अध्ययन से साफ हो गया है कि वह दावे कागजी ही थे.
विशेषज्ञों का कहना है कि इस जानलेवा बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए सरकार को स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों को साथ में लेकर एक ठोस अभियान शुरू करने के साथ यह भी ध्यान रखना होगा कि धन की कमी से स्वास्थ्य परियोजनाओं की प्रगति पर प्रतिकूल असर नहीं पड़े. वैसे, पहले भी डब्ल्यूएचओ समेत कई संगठन भारत को टीबी के बढ़ते आंकड़ों पर चेताते रहे हैं. लेकिन सरकार के रवैए से नहीं लगता कि उसने इससे कोई सबक लिया है. ऐसे में इस ताजा रिपोर्ट से भी उम्मीद कम ही नजर आती है. विशेषज्ञों के मुताबिक, "इस मामले में पहले सरकार को जागरूक होना होगा. इस दिशा में गंभीरता से पहल के बिना समस्या दिनोंदिन गंभीर होती जाएगी."