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भगवान भरोसे भारत में सुरक्षा

९ जुलाई २०१३

सुरक्षा इंतजाम के लिहाज से बीते कुछ सालों में भारत और अमेरिका के बीच एक बड़ा फर्क सामने आया है. 09/11 के बाद अमेरिका ने आंतरिक सुरक्षा को अभेद बनाने की ईमानदार कोशिश की. लेकिन भारत में...

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तस्वीर: REUTERS/Krishna Murari Kishan

भारत में एक के बाद एक होते आतंकी हमले सुरक्षा के भारतीय दावों की हकीकत पेश करते हैं. एक हमले की गुत्थी सुलझ नहीं पाती है और दूसरा हो जाता है. रविवार को बोध गया में शांति के संदेश को जिस तरह तार तार किया गया, उसकी पीड़ा से शायद भगवान बुद्ध भी मर्माहत हुए होंगे. विस्फोट की धमक शांत भी नहीं हुई कि सियासी और सरकारी बयानों ने जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों की देश में आम जनजीवन की सुरक्षा के प्रति संजीदगी का स्तर भी बता दिया.  

पूरे देश में अहम जगह, धार्मिक हो या ऐतिहासिक या संसद भवन जैसे सरकारी प्रतिष्ठान, लगता है कि हर इमारत को सुरक्षा इंतजामों के लिए एक आतंकी हमले की दरकार है. इसका जीता जागता प्रमाण है कि गुजरे कुछ सालों में जहां जहां आतंकी हमले हुए उन जगहों की तो सुरक्षा चाक चौबंद हो गई लेकिन बाकी सब जगह भगवान भरोसे हैं.

बात सिर्फ सरकार के रुख की भी नहीं है, बल्कि कहना गलत नहीं होगा कि मीडिया भी उसी लीक पर चलता है. हमलों के अगले दिन के अखबारों में घटनास्थल पर सुरक्षा इंतजामों की खामियों, नेताओं के बयान, शोक सन्देश और हताहत लोगों की दर्द भरी दास्तान को ही प्रकाशित कर फर्ज अदायगी कर ली जाती है. 

बोध गया में हमले के बाद देश की राजधानी दिल्ली में महत्वपूर्ण स्थलों के सुरक्षा इंतजामों का जायजा लेने के बाद इस हकीकत का एहसास हुआ कि पूरा मुल्क भगवान भरोसे है. बोध गया की ही तरह दिल्ली में भी यूनेस्को की ओर से विश्व विरासत का दर्जा प्राप्त तीन ऐतिहासिक स्थल (कुतुब मीनार, लाल किला और हुमायूं का मकबरा) हैं. इसके अलावा पर्यटन और धार्मिक महत्व के कई मंदिर मस्जिद हैं, जिन्हें देखने हजारों की संख्या में लोग हर रोज आते हैं. जब यह जानने की कोशिश की गई कि ये स्थान कितने महफूज हैं तो अचंभा हुआ.

लाल किले पर 2002 में आतंकी हमला हुआ था इसलिए यहां सेना, अर्धसैनिक बल, पुलिस और निजी सुरक्षा एजेंसी तैनात हैं. सच्चाई तो ये है कि ये पुख्ता इंतजाम आतंकी हमले के बाद नहीं किए गए बल्कि बीते 65 साल से जश्न ए आजादी पर लाल किले की प्राचीर से ही झंडा फहराये जाने और इस दौरान प्रधानमंत्री सहित पूरा सरकारी अमला यहां मौजूद रहने के कारण यहां चाक चौबंद सुरक्षा इंतजाम रहते है. खासकर जुलाई और अगस्त में स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों के चलते पूरे इलाके में चप्पे चप्पे पर खाकी वर्दी की नजर रहती है.

जबकि इससे अलग दिल्ली का ताज समझे जाने वाला हुमायूं का मकबरा निजी सुरक्षा एजेंसियों के हवाले है. इनके महज 50 निहत्थे गार्ड कई हजार सैलानियों को संभालते हैं. हालत ये है कि सुरक्षा उपकरण के नाम पर इनके पास मेटल डिटेक्टर और सीसीटीवी कैमरे भी नहीं हैं. किसी हमले की स्थिति से निपटने के लिए हथियार के नाम पर इनके पास डंडा तक नहीं है. पुरातत्व विभाग की देखरेख वाले इन विरासतों का दिल्ली में अगर ये हाल है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाकी इलाकों में क्या होगा.

पुरातत्व विभाग की दिल्ली इकाई के प्रमुख वसंत स्वर्णकार हकीकत को स्वीकारते हुए कहते हैं कि सुरक्षा उपकरणों की तैनाती का प्रस्ताव मुख्यालय भेज गया है. इस पर मंजूरी मिलने का इंतजार है. शायद मंजूरी देने वालों को एक अदद हमले का इंतजार है.

यही हाल धार्मिक स्थलों का है. फर्क सिर्फ इतना दिखा कि आधुनिक समय के अक्षरधाम और लोटस टेम्पल जैसे अहम धार्मिक स्थल तुलनात्मक रूप से महफूज कहे जा सकते हैं, जबकि प्राचीन महत्व वाले सीपी का हनुमान मंदिर और जामा मस्जिद जैसे पारंपरिक धार्मिक स्थल सुरक्षा के नाम पर नापाक इरादे वालों के रहम पर छोड़ दिए गए हैं. हनुमान मंदिर में लगे सीसीटीवी कैमरे पर झूलते बन्दर बता रहे हैं कि इनकी यह मौज मस्ती उस दिन तक तो बेरोकटोक चलेगी ही जब तक ये स्थल किसी आतंकी की हिट लिस्ट में नहीं आ जाते. 

अब बात बयानबाजी की, जो सियासतदानों और हुक्मरानों की सोच को साफ उजागर कर दे. रविवार को बोध गया में हमले के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर तमाम सियासी दलों के जो बयान आए उनका मजमून देख कर साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि हर हमले के बाद वही बयान मीडिया को जारी कर दिया जाता है जो पिछले हमलों में जारी किया था. सिर्फ तारीख, जगह और घटनास्थल का नाम बदल दिया जाता है. हकीकत तो ये भी है कि पत्रकार भी सरकार के इन बयानों की फाइल को कंप्यूटर में सेव करके रखते हैं और सरकारी बयान का इंतजार किये बिना ही इनमें जरूरी बदलाव कर अखबार में छपने को भेज देते हैं.

हो भी क्यों न, हर बार प्रधानमंत्री कहते हैं कि ऐसे हमले बर्दाश्त नहीं होंगे. गृह मंत्रालय पाकिस्तान के मत्थे हमले की जिम्मेदारी थोप देता है. जबकि नेतागण घटनास्थल पर पुलिस तैनात करने की मांग, मुआवजे बांटने और आरोप प्रत्यारोप की राजनीति में व्यस्त हो जाते है. सरकार की ही तरह मीडिया कुछ नेताओं के बयानों के बारे में भी पहले से ही अंदाज लगा लेता है. मसलन कांग्रेस के दिग्विजय सिंह को अब हर आतंकी हमले के पीछे हिन्दू हाथ नजर आने लगते हैं, तो बीजेपी को हमले के पीछे कांग्रेसी हाथ दिखने लगते हैं.

हकीकत जो भी हो मगर इस सच्चाई से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता कि व्यवस्था की नाकामी ही एक के बाद एक होते हमलों का कारण है. साथ ही आतंकी हमलों से ज्यादा खतरा आतकंवाद के नाम पर शुरू हो रहे सियासत के खेल से है, जिसे हर हाल में रोकना सरकार की नहीं बल्कि सरकार बनाने वाले करोड़ों जिम्मेदार नागरिकों की जिम्मेदारी बन गयी है.  

ब्लॉगः निर्मल यादव, दिल्ली

संपादनः अनवर जे अशरफ