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बॉन में तैयार होगा पेरिस संधि को लागू करने का रास्ता

महेश झा
४ नवम्बर २०१७

हर हफ्ते कहीं न कहीं से तूफान, भारी बरसात, बाढ़, भूस्खलन और भूकंप की खबर आती है लेकिन जलवायु परिवर्तन पर शोर तभी मचता है जब कोई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा हो. बॉन में होने वाले जलवायु सम्मेलन से पहले भी हालत अलग नहीं.

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ICE-Sonderzug "Train to Bonn" zur 23. UN-Klimakonferenz
तस्वीर: picture alliance/dpa/M. Gambarini

संयुक्त राष्ट्र ने फिर चेतावनी दी है. इस बार चेतावनी सख्त है कि प्रकृति का ऐसा दोहन जारी रहा तो दस साल के अंदर जलवायु परिवर्तन को रोकना और पलटना संभव नहीं रहेगा. धरती इतनी गर्म हो जायेगी कि भू-भाग जलमग्न हो जायेंगे, बहुत सारे इलाके रहने लायक नहीं रहेंगे और मौसम उत्पाती हो जायेगा लेकिन बहुत सारे लोगों को अभी भी इस चेतावनी पर भरोसा नहीं. तभी तो अमेरिका ने पेरिस जलवायु संधि से बाहर निकलने का फैसला किया है और बॉन में वह एक बहुत ही छोटे स्तर के प्रतिनिधिमंडल के साथ भाग ले रहा है. जब समझौते की शर्तें माननी ही नहीं तो फिर बहस किस बात की. बॉन में कोई नये लक्ष्य तय भी नहीं होने हैं, बस यह तय करना है कि पेरिस में तय लक्ष्यों को कैसे पूरा किया जाए. संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के नेताओं ने जो वादे किये थे वे उन लक्ष्यों से कोसों दूर हैं.

कितना आकर्षक होगा बॉन का जलवायु सम्मेलन?

न्यूजीलैंड बराबर जल गये जंगल

संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि यदि पर्याप्त प्रयास नहीं हुए तो 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पेरिस के लक्ष्यों से 30 फीसदी ज्यादा होगा. शताब्दी के अंत तक धरती का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ जायेगा. पेरिस में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इसे 2 डिग्री पर रोकना तय किया था लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार कौन हैं? एक रिपोर्ट के अनुसार एक तिहाई उत्सर्जन तो दुनिया की 250 कंपनियां करती हैं. इन्हें रोकना बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसा है. सम्मेलनों में तय फैसलों की काट वे निकाल ही लेते हैं.

सागर को तबाही से बचाने की कोशिश

अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों की एक विडंबना होती है. समझौतों की सौदेबाजी करने वाले लोग उसे लागू करने के लिए जिम्मेदार नहीं होते. इन सम्मेलनों में अधिकारी और राजनेता पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गैसों को कम करने या बिजली के उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल घटाने के बड़े बड़े वादे करते हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें फैसलों की शक्ल देने में विफल रहते हैं. अक्सर पर्यावरण के मुद्दे आर्थिक मुद्दों पर हावी रहते हैं. कहीं गठबंधन सरकारों में सहमति नहीं हो पा रही है, कहीं इन कदमों को लागू करने के लिए धन का अभाव है तो कहीं पर्यावरण सुरक्षा के चक्कर में खर्च बढ़ रहा है और रोजगार मारे जा रहे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की भी यही दलील थी और रूस तथा चीन भी ध्रुवीय इलाकों में तेल की खोज कर यही कर रहे हैं.

जर्मनी को पर्यावरण संरक्षण का अगुआ कहा जाता है, लेकिन पेरिस के लक्ष्यों को वह भी पूरा नहीं कर पायेगा. उसके फैसलों में भी आर्थिक प्राथमिकताएं अहम भूमिका निभा रही हैं, अब चाहें गाड़ियों के उत्सर्जन में कमी हो, कोयले से चलने वाले बिजलीघर हों या विमानन और नौवहन के लिए सुविधाएं हों. भले ही जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम में होने वाले बदलाव का उतना असर जर्मनी पर नहीं दिख रहा है, लेकिन यहां असमय आने वाले तूफान और बाढ़ के अलावा गर्मियों में गर्मियों का और ठंड में बर्फ का न होना तो दिख ही रहा है.

बॉन सम्मेलन की सबसे बड़ी चुनौती अंतरराष्ट्रीय संधियों में भरोसा बहाल करने की होगी. यदि सारी दुनिया पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों में शामिल है तो उन्हें भरोसा भी होना चाहिए कि दूसरे भी इसके लिए कुछ कर रहे हैं और इन कदमों को मापने के कुछ तरीके भी होने चाहिए ताकि उन्हें परखा जा सके. 2020 में पेरिस संधि के शुरू होने से पहले सभी देशों को हिसाब-किताब करना होगा कि वे किस तरह प्रगति कर रहे हैं और इन सब के लिए तैयारी की जरूरत होगी. बॉन में एक तरह से पेरिस संधि के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम बनाना होगा ताकि संधि न सिर्फ लागू हो सके, कामयाब भी हो सके.

बॉन सम्मेलन की अध्यक्षता फिजी कर रहा है. समुद्र के बढ़ते जलस्तर से प्रभावित दूसरे छोटे द्वीपों की तरह उसकी भी दिलचस्पी सम्मेलन की सफलता में है. वे न सिर्फ पर्यावरण सुरक्षा पर जोर दे रहे हैं बल्कि लक्ष्यों के पूरा न होने पर हर्जाने की मांग पर भी. आखिरकार नुकसान पैदा करने वाले को ही उसकी भरपाई भी करनी चाहिए. अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों की तमाम राजनीति के बावजूद देहातों के उन किसानों को नहीं भुलाया जाना चाहिए जिनके खेतों पर सूखे की वजह से कोई फसल नहीं होती और उन किसानों को भी नहीं जिनकी फसल कटने से पहले ही बाढ़ के पानी में डूब जाती है. इससे पहले कि उन्हें घरबार छोड़ना पड़े, उनके हितों को अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के मंच पर आना होगा.