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बहुमत के लिए मत काफ़ी नहीं

७ मई २०१०

ब्रिटेन में हुए आम चुनाव में अनुदारवादी पार्टी को बढ़त तो मिली है, लेकिन बहुमत न मिल पाने के कारण उसे अगले चार सालों के लिए विपक्ष में रहना पड़ सकता है. सरकार की तस्वीर साफ नहीं हो पा रही है.

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किसी को बहुमत नहींतस्वीर: AP Graphics

650 सदस्यों वाले हाउस ऑफ़ कॉमन्स में 35 सीटों के नतीजे अभी आने बाकी हैं. अनुदारवादी कंज़रवेटिव पार्टी को सबसे ज्यादा 291 सीटें मिल चुकी हैं, यानी बहुमत से 36 कम. 252 सीटों के साथ लेबर पार्टी दूसरे स्थान पर है. चुनाव अभियान के दौरान लग रहा था कि ब्रिटेन के चुनावी इतिहास में पहली बार लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी बाकी दोनों पार्टियों से मुक़ाबला करने की स्थिति में होगी. लेकिन उसे सिर्फ़ 52 सीटें मिल पाई हैं. बाकी सीटों पर स्थानीय और छोटे दलों के उम्मीदवार विजयी रहे हैं. 1974 के बाद पहली बार ब्रिटेन में एक त्रिशंकु संसद चुनी गई है.

भारत की तरह ब्रिटेन में भी हर निर्वाचन क्षेत्र में पहले नंबर पर रहने वाला उम्मीदवार विजयी रहता है और इस प्रकार मतों का बहुमत न मिलने पर भी किसी पार्टी को सीटों का बहुमत मिल जाता है. इसके चलते हर चुनाव में ब्रिटेन में कंज़रवेटिव या लेबर पार्टी में से किसी एक को स्पष्ट बहुमत मिलता रहा है और उसे छोटे दलों के समर्थन की ज़रूरत नहीं रही है. इस बार स्थिति अलग है.

कंज़रवेटिव पार्टी के नेता डेविड कैमरन ने चुनाव नतीजों पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि सत्तारूढ़ लेबर पार्टी जनता का मतादेश खो चुकी है. किसी पार्टी को बहुमत न मिलने पर सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए बुलाया जा सकता है. लेकिन इस समय प्रधानमंत्री होने के कारण गॉर्डन ब्राउन को सरकार बनाने की पहल करने का अधिकार है. फिर उन्हें अपना बहुमत साबित करना पड़ेगा. प्रेक्षकों का मानना है लेबर पार्टी लिबरल डेमोक्रेटों के साथ मोर्चा बनाने की कोशिश करेगी. लेकिन दोनों के साथ आने के बाद भी संसद में स्पष्ट बहुमत नहीं बनता. ऐसी स्थिति में छोटे दलों के हाथों में सरकार की कुंजी होगी. इनमें से अधिकतर दलों का झुकाव लेबर पार्टी की ओर है. प्रधानमंत्री ब्राउन ने कहा है कि चुनाव नतीजों से स्पष्ट है कि किसी दल को बहुमत नहीं मिला है. प्रधानमंत्री के रूप में वे एक स्थिर सरकार के लिए हर क़दम उठाएंगे.

घुड़दौड़ के लिए मशहूर ब्रिटेन में राजनीतिक सट्टेबाज़ी का मौसम शुरू हो रहा है. एक ऐसे दौर में, जब उसकी अर्थनीति गहरे संकट के कगार पर है.

रिपोर्टः एजेंसियां/उभ

संपादनः ए जमाल