बर्लिनाले में भारत की 'मिस लवली‘ निहारिका
१७ फ़रवरी २०१६भारतीय अभिनेत्री निहारिका सिंह जर्मन राजधानी में आयोजित प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव बर्लिनाले में शिरकत कर रही हैं. पूर्व मॉडल, मिस इंडिया अर्थ 2005 और अलग अलग किस्म के अर्थपूर्ण सिनेमा का हिस्सा बनने की शौकीन अभिनेत्री निहारिका सिंह से डॉयचे वेले हिंदी की खास बातचीत के अंश.
डॉयचे वेले: आपको बर्लिन कैसा लगा?
निहारिका सिंह: बर्लिन मुझे बहुत अच्छा लगा. बहुत कॉस्मोपॉलिटन लगा, मल्टीकल्चरल लगा और यहां के लोग बहुत बहुत अच्छे लगे - जैसा एक शहर को होना चाहिए. बाकी शहर इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं.
बर्लिनाले टैलेंट्स का हिस्सा बन कर आपने क्या सीखा?
यहां आना मुझे जैसे किसी कॉस्मिक प्लान का हिस्सा लगता है, जो मेरे हाथ में नहीं. मेरे चाहने से तो कभी कुछ होता नहीं लेकिन कई बार जीवन के जिस मोड़ पर मुझे किसी चीज की सचमुच जरूरत महसूस होती है, वो अपने आप हो जाता है. मुझे यहां के ट्रेनर्स से बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है. इसके अलावा यहां ऐसे बहुत से लोगों से मुलाकात हो रही है जो आउट ऑफ द बॉक्स सोचते हैं. जिन लोगों में नया सोचने या सीखने की उत्सुकता ही खत्म हो जाती है मुझे उनके लिए दुख होता है.
यहां हमारी मास्टर क्लास मेरिल स्ट्रीप ने भी ली. एक महिला एक्टर होने के नाते स्ट्रीप जैसी सशक्त महिला कलाकार को देखना और सुनना मेरे लिए बहुत प्रेरणात्मक रहा.
नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ 2012 में आई आपकी फिल्म 'मिस लवली‘ फ्रांस के कान फिल्म महोत्सव में भी गई थी. आपके लिए वह पहला अंतरराष्ट्रीय अनुभव कितना अहम था?
वो मेरे जीवन में बहुत मायने रखता है. कान के बाद ही सिनेमा को लेकर मेरे नजरिए में काफी बदलाव आया. मैं कभी फिल्म स्कूल नहीं गई थी और जो सीखा वो फिल्म में काम करते हुए सीखा. उसके बहुत पहले करीब 17 साल की उम्र से ही मैंने मॉडलिंग शुरु कर दी थी. फिर मिस इंडिया कॉन्टेस्ट और फिर कुछ बॉलीवुड फिल्मों में भी काम कर चुकी थी. लेकिन मुझे सिनेमा की जो असली समझ आई वो निर्देशक आशिम अहलूवालिया की फिल्म मिस लवली करने के दौरान और उसके बाद ही आई.
खासतौर पर कान में कई अंतरराष्ट्रीय फिल्में देख कर और ऐसे फिल्मकारों से मिलकर सिनेमा के प्रति मेरा नजरिया ही बदल गया. मुझे लगा कि मुझे तो अपने इस पेशे के बारे में तो बहुत कुछ सीखने की जरूरत है और तभी से मेरा दिमाग बिल्कुल सिनेमा के एक स्टूडेंट जैसा हो गया. कान से लौटने के बाद ही मैंने एफटीआईआई पुणे से सिनेमा अप्रीसिएशन का कोर्स किया और तबसे सीख ही रही हूं.
आपको कैसा सिनेमा पसंद है?
मुझे विश्व सिनेमा से लेकर रीजनल सिनेमा बहुत ज्यादा पसंद आता है. मुझे वैसा सिनेमा पसंद है जो क्रिटिकल है, सवाल खड़े करता है और कुछ नया दिखाने की कोशिश करता है. एक ही लीक पर बनने वाली फिल्मों से मुझे बहुत ऊब होती है. चाहे सिनेमा हो या साहित्य – मुझे हर चीज में नयापन भाता है. ऐसी चीजें जिनसे मैं एक व्यक्ति के तौर पर सीखूं और बेहतर बन सकूं.
रीजनल सिनेमा में आपका आने वाला प्रोजेक्ट क्या है?
हमने हाल ही में भारत के नॉर्थईस्ट में जाकर एक रीजनल फिल्म बनाई है. फिल्म बनाई एक बंगाली डायरेक्टर बप्पा दत्ता बंदोपाध्याय ने. ये बंगाली, अंग्रेजी, खासी और असमिया में बनी एक बहुभाषी फिल्म है. ये फिल्म इफ्फी के पैनोरामा सेक्शन में भी थी. लेकिन जो सबसे दुखद बात हुई वो ये कि फिल्म की स्क्रीनिंग से पहले ही मल्टीपुल ऑर्गन फेल होने से बप्पा गुजर गए. अब हमारी वो फिल्म एक अनाथ फिल्म है.
प्रियंका चोपड़ा जैसी स्थापित अभिनेत्री की प्रोडक्शन कंपनी ने हाल ही में क्षेत्रीय फिल्मों के निर्माण का फैसला किया है. ऐसे कदम कितने अहम हैं?
सच तो ये है कि रीजनल फिल्में कम पैसों में बनती हैं और लागत भी जल्दी निकाल लेती हैं. असल में ये एक बहुत ही फायदेमंद कारोबार है. क्रिएटीव जीनियस वैसे भी कम होते हैं और अगर ऐसा कोई क्षेत्रीय फिल्मकार फिल्म बनाना भी चाहे तो कई बार उसके सामने फंडिंग और डिस्ट्रिब्यूशन की समस्या आती है. स्टेट फंडिंग नहीं मिलती और फिल्म इंस्टीट्यूट में भी कितना कुछ हो रहा है.
वर्तमान सरकार को भी ज्यादा दिलचस्पी नहीं लगती किसी तरह की क्रिटिकल थिंकिग और इनोवेटिव आइडिया में. तो फिर कुछ नया करने के लिए रिबेल बनना पड़ता है, किसी की परवाह किए बिना, लेकिन उसके लिए बहुत साहस चाहिए. लेकिन भारत में हमेशा से ऐसे कुछ लोग रहे हैं जिन्होंने खुद मुश्किलें उठाईं और ऐसा सिनेमा छोड़ गए जिसे देखकर हम सब आज भी सीख रहे हैं.
इंटरव्यू: ऋतिका पाण्डेय