बढ़ता बोझ अदालतों का
१५ जुलाई २०१४भारत में न्यायपालिका के सामने मुकदमों का बोझ कोई नई समस्या नहीं है. आजादी के बाद से ही अदालतों और जजों की संख्या आबादी के बढ़ते अनुपात के मुताबिक कभी भी कदमताल नहीं कर पाई. इस वजह से न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के मुताबिक न्यायपालिका में भी मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन कायम नहीं हो सका. समय के साथ व्यवस्था के तीनों प्रमुख स्तंभों के बीच बढ़ते टकराव ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया. सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक महत्व के मामलों को निपटाने के अपने मूल काम के बजाय सामान्य पारिवारिक मामलों तक की अपीलें निपटाने मात्र तक सीमित होकर रह गया है.
भयावह होती स्थिति
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पिछले सप्ताह संसद में अदालतों पर बढ़ते बोझ की समस्या की तस्वीर आंकड़ों के साथ पेश की. देश की सभी अदालतों में लगभग 3.13 करोड़ मुकदमे लंबित हैं. इनमें से अकेले सुप्रीम कोर्ट में 63843 मामलों में फैसले का इंतजार है, जबकि देश के 24 हाईकोर्ट में लंबित मामलों की संख्या 44.62 लाख और निचली अदालतों 2.68 करोड़ तक पहुंच गई है. दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में इतनी तादाद में मुकदमे लंबित नहीं हैं.
हर समस्या की तरह इस समस्या की जड़ में भी सियासत का दांवपेंच है. न्यायपालिका को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने के सभी संवैधानिक उपाय पिछले पांच दशकों में निष्प्रभावी साबित हुए हैं. निचली अदालतों से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक में जजों की नियुक्ति में सियासी दखल की कोशिश एक हकीकत है. आपातकाल लगने से पहले केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद न्यायपालिका और विधायिका के बीच उत्पन्न हुए भीषण टकराव ने न्यायिक प्रक्रिया में सियासी दखल को अचानक बढ़ा दिया.
हालत इतनी बिगड़ गई है कि देश के चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा ने एक मामले की सुनवाई के दौरान वकीलों से ही इस समस्या का समाधान सुझाने को कहा. अगर न्यायपालिका 24 घंटे सातों दिन काम करे तब भी इस बोझ से छुटकारा मिलना मुमकिन नहीं है. निचली अदालतों में जजों और वकीलों के अभाव में होने वाले फैसलों से असंतुष्ट पक्षकार अपील के लिए उच्च अदालतों में जाने को विवश होते हैं.
संभावित समाधान
संसद में समस्या की विकराल तस्वीर पेश होने के बाद विधि आयोग के अध्यक्ष रिटायर्ड जस्टिस एपी शाह ने सरकार को न्यायपालिका की इस चिरंतन समस्या के समाधान सुझाने वाली सालाना रिपोर्ट सौंपी. हालांकि रिपोर्ट में जस्टिस शाह ने हर बार की तरह इस बार भी पारंपरिक सुझाव देते हुए जजों और अदालतों की मांग के मुताबिक संख्या बढ़ाने का सुझाव प्रमुखता से दिया है. रिपोर्ट के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार 24 हाईकोर्टों में जजों की संख्या 906 होनी चाहिए मगर अभी यह 636 ही है. जबकि 270 जजों की कमी को पूरा करने में सरकार सालों से संसाधनों के अभाव का रोना रोकर असमर्थता जता रही है.
यह बात दीगर है कि हाईकोर्ट में मांग के मुताबिक जजों की मौजूदा अधिकतम संख्या में 25 फीसदी का इजाफा करना समय की मांग बन गया है. इस प्रकार सभी हाईकोर्ट में ही कम से कम 500 जज तैनात किए जाएं तब उच्च अदालतों में लंबित मामलों की समस्या से निजात मिल सकती है. जबकि निचले स्तर पर नई अदालतों के गठन और जजों की तैनाती पर फिलहाल सोचना भी मुमकिन नहीं है.
इन पारंपरिक समाधानों के अतिरिक्त जस्टिस शाह ने ट्रैफिक चालान के मामलों की अधिकता को देखते हुए सभी जिलों में यातायात संबंधी विशेष अदालतों के गठन का सुझाव दिया है. इसके अलावा विधि आयोग की इस रिपोर्ट में सभी हाईकोर्ट से लंबित एवं नए मामलों का श्रेणीबद्ध तरीके से डेटाबेस तैयार करने और तीन साल की निश्चित समय सीमा के भीतर इन्हें निपटाने की कार्ययोजना बनाने का सुझाव दिया है. जस्टिस शाह ने हाईकोर्ट के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु दो साल बढ़ाकर 62 साल करने की भी सलाह दी है.
निष्कर्ष
चीफ जस्टिस लोढ़ा की चिंताएं वाजिब हैं, मगर सवाल अदालतों पर भी उठने लगे हैं. एक ओर बाल की खाल निकालते वकीलों की महज तारीख बढ़वाने वाली सोच अगर चिंता पैदा करती है तो कानून की किताबों में लिखी इबारत से चिपके लकीर के फकीर बन बैठे जजों का अड़ियल रवैया भी मुश्किलों को कम नहीं कर रहा. इससे इतर विधायिका द्वारा पैदा की जा रही कानूनों की भरमार न्यायिक प्रक्रिया को निरंतर जटिल बना रही है.
सरकार नई अदालतों और अतिरिक्त जजों के लिए संसाधन उपलब्ध करा कर जिम्मेदारी दिखा सकती है तो संसद मौजूदा कानूनों की विभिन्न अदालतों में होने वाली व्याख्या को नए कानूनों में ढाल कर अदालतों का काम आसान कर सकती है. न्यायिक प्रक्रिया में आमूल सुधार के जरिए अदालतों का बोझ भी हल्का हो सकता है और लोगों को न्याय मिलने में देरी को रोका जा सकता है. न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बहाल करने के लिए यह बहुत ही जरूरी है.
ब्लॉग: निर्मल यादव
संपादन: महेश झा