बच्चों की बलि लेते मां-बाप के सपने
२० मई २०१६कभी आईआईटी और एम्स समेत देश के शीर्ष इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में दाखिले की गारंटी वाले राजस्थान के कोटा के कोचिंग उद्योग का मुखौटा उतरने लगा है. बीते कुछ समय से यह अपनी कामयाबी और टॉपरों के लिए नहीं बल्कि हताशा में लगातार जान देते छात्रों की आत्महत्या के चलते लगातार सुर्खियां बटोर रहा है. यहां इस उद्योग के बदलते चरित्र की कई वजहें हैं.
भारत में कोचिंग की राजधानी के तौर पर मशहूर राजस्थान का कोटा देश के विभिन्ने राज्यों से आईआईटी या शीर्ष मेडिकल कालेजों में दाखिला पाने का सपना लेकर यहां पहुंचने वाले छात्रों की कब्रगाह बनता जा रहा है. उम्मीदों के भारी बोझ और कई अन्य वजहों से यहां छात्रों की आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं. बावजूद इसके सरकार ने अब तक इस मामले पर अंकुश लगाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है.
मरते छात्र
कोटा में देश के विभिन्न राज्यों से सतरंगी सपने लेकर पहुंचने वाले छात्रों में हताशा और उसकी वजह से आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. अकेले इसी साल लगभग एक दर्जन छात्र-छात्राओं ने जीवन से हताश होकर आत्महत्या का आसान रास्ता चुन लिया है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, बीते पांच वर्षों में ऐसे मामलों की तादाद 82 पहुंच गई है. लेकिन सवाल यह है कि आखिर यहां छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? इसके जवाब की तलाश के लिए इस उद्योग के विभिन्न पहलुओं और कोचिंग के लिए आने वाले छात्रों की जीवनशैली की पड़ताल जरूरी है. शिक्षाविदों के मुताबिक मोटे तौर पर इसकी चार वजहें गिनाई जा सकती हैं. भारी प्रतिद्वंद्विता का माहौल, क्षेत्रवाद, उम्मीदों का भारी बोझ और पहली बार घर से दूर रहने का दर्द. लाखों की फीस लेने वाले इन कोचिंग संस्थानों में पहुंचने वाले छात्रों से उनके प्रदर्शन या दसवीं कक्षा में मिले नंबरों के आधार पर भी भारी भेदभाव होता है. इन संस्थानों में कमजोर छात्रों को ओछी निगाह से देखा जाता है और उनके साथ सौतेला व्यवहार होता है. नतीजतन उनमें धीरे-धीरे हीनभावना घर करने लगती है. इस उद्योग के जानकार लोगों के मुताबिक शुरुआती दौर में ही छात्रों को ए, बी, सी, डी श्रेणियों में बांट दिया जाता है. शीर्ष 10-15 छात्रों के लिए बेहतरीन शिक्षक मुहैया कराए जाते हैं. लेकिन बाकी लोगों को उस स्तर का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता. टॉपर छात्र ऐसे छात्रों से सौतेला व्यवहार करते हैं. बावजूद इसके कि हर छात्र से समान फीस ली जाती है.
हालांकि कोचिंग संस्थान यह कहते हुए इस प्रणाली का बचाव करते हैं कि हर छात्र की जरूरत अलग-अलग होती है. इसी वजह से यह वर्गीकरण जरूरी है. यहां इस उद्योग के धंधा बनने के साथ पेइंग गेस्ट का कारोबार भी तेजी से पनपा है. मोटी रकम लेकर एक
उमंग से अवसाद तक
छोटे से कमरे में चार-चार छात्रों को रखा जाता है और उनसे घटिया खाने के एवज में भी काफी पैसे वसूले जाते हैं. इसके साथ ही कोचिंग संस्थानों में हफ्ते के सातों दिन 12 से 14 घंटे पढ़ने का दबाव और ऊपर से होमवर्क का दबाव. ऐसे में छात्रों के ज्यादातर सपने शुरुआती एक-दो महीनों में ही बिखरने लगते हैं. कुछ छात्र इस दबाव को नहीं झेल पाने की वजह से घर लौट जाते हैं तो कुछ नशीली दवाओं का सहारा लेते हैं और आखिर में नाकाम होने पर आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं. छात्रों के समक्ष मजबूरी यह है कि ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवार के होते हैं जिनके मां-बांप अपने सपने पूरे करने के लिए उनको लाखों की फीस भर कर यहां भेजते हैं. कई मामलों में तो घरवालों को जमीन और मकान बेचना पड़ता है. ऐसे में छात्र सोचते हैं कि वे आखिर किस मुंह से खाली हाथ घर लौटें. यही सोच उनको आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है.
कोटा में एक मनोचिकित्सा केंद्र चलाने वाले डॉ एमएल अग्रवाल कहते हैं, "अवसाद के हर मामले आत्महत्या तक नहीं पहुंचते. छात्र अपना दर्द किसी से बांट नहीं पाते. नतीजतन अवसाद बढ़ता जाता है." वह कहते हैं कि यहां एक बार आने वाले छात्र के सामने हर वक्त यही सवाल होता है कि अगर खाली हाथ घर लौटा तो लोग क्या कहेंगे? उन पर सामाजिक दबाव बहुत ज्यादा होता है. कोचिंग के लिए आने वाले छात्र पहली बार अपने घर से दूर रहते हैं. ऐसे में हालातों से सामंजस्य बिठाना सबके लिए संभव नहीं होता. यहां हर छात्रों को रोजाना सुबह साइकिलों से कोचिंग सेंटर तक जाते देखने का नजारा आम है. पढ़ाई का दबाव इतना ज्यादा होता है कि छात्रों को मनोरंजन के लिए भी खास समय नहीं मिल पाता.
एक मनोवैज्ञानिक डा. प्रवीण कुमार कहते हैं, "हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती. इस स्थिति के लिए अभिभावक भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं. वे अपने अधूरे सपनों को अपने बेटे-बेटियों के जरिए पूरा करना चाहते हैं. सबको यह समझना चाहिए कि हर आदमी डॉक्टर या इंजीनियर बन कर ही नहीं जी सकता. रोजगार के कई और क्षेत्र भी हैं." यहां पहुंचने वाला हर छात्र आईआईटी या एम्स जैसे नामी संस्थानों में दाखिला लेने का इच्छुक होता है. लेकिन सबके लिए ऐसा करना संभव नहीं होता.
करोड़ों का टर्नओवर
राजस्थान का यह अनाम-सा शहर अपने कोचिंग उद्योग के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है. हर साल सतरंगी सपनों के साथ को सवाल लाख छात्र यहां स्थित विभिन्न कोचिंग संस्थानों में दाखिला लेते हैं. इनमें से उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और हरियाणा के छात्रों की तादाद लगभग 85 फीसदी है. किसी भी संस्थान में सालाना दो लाख रुपये से कम फीस नहीं है. ऊपर से रहने-खाने का खर्च भी 15 से 20 हजार रुपए महीना. अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने वर्ष 2011 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में कोचिंग का सालाना कारोबार 40 हजार करोड़ रुपये का है. इस उद्योग से जुड़े सूत्रों के मुताबिक, अब यह 50 हजार करोड़ से ऊपर पहुंच गया है. इसके साथ पेइंग गेस्ट, होटल और दूसरे सहायक उद्योगों को जोड़ लें तो यह आंकड़ा 75 हजार करोड़ के आसपास पहुंच जाएगा.
केंद्र की पहल
कोटा में आत्महत्या के बढ़ते मामलों के बाद अब केंद्र सरकार ने भारतीय तकनीकी संस्थानों (आईआईटी) के साथ मिल कर बीते सप्ताह बीते 50 वर्षों के दौरान आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षाओं के प्रश्नपत्र और उनके जवाब जारी करने का फैसला किया है. इसका मकसद छात्रों की सहायता करना और कोचिंग संस्थानों का असर कम करना है. यह प्रश्नपत्र एक मोबाइल ऐप और एक पोर्टल के जरिए हासिल किए जा सकते हैं. केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने यह ऐप जारी करते हुए बताया कि कोचिंग उद्योग के खिलाफ सरकार को लगातार शिकायतें मिलती रही हैं. लेकिन सवाल यह है कि सरकार इस मामले में क्या कर सकती है? वह बताती हैं कि अगले दो महीनों के दौरान उक्त प्रश्नपत्र उपलब्ध करा दिए जाएंगे. ईरानी बताती हैं कि सरकार आईआईटी काउंसिल के साथ मिल कर यह सुनश्चिति करने का प्रयास कर रही है कि प्रवेश परीक्षा में सवाल 12वीं के स्तर के ही पूछे जाएं. मंत्री के मुताबिक, डिग्री स्तर का सवाल होने पर 12वीं का छात्र उनको कैसे हल कर सकता है? मौजूदा व्यवस्था के चलते ही छात्र कोचिंग संस्थानों की शरण में जाने पर मजबूर होते हैं.
एक शिक्षाविद निखिल दे कहते हैं, "निजी कोचिंग संस्थान हमारी शिक्षा व्यवस्था पर एक बदनुमा धब्बा हैं. वहां ढंग से पढ़ाई नहीं होती. अधिक से अधिक छात्रों को दाखिला देकर मोटा मुनाफा कमाना ही उनका एकमात्र मकसद है."
विशेषज्ञों का कहना है कि कोचिंग संस्थानों पर अंकुश लगाने के लिए दाखिले संबंधी नियम तय कर, हर संस्थान में मनोवैज्ञानिकों की नियुक्ति अनिवार्य कर और समय-समय पर वहां इन नियमों पर अमल की जांच कर स्थिति में कुछ हद तक सुधार लाया जा सकता है. लेकिन इसके साथ ही समाज की मानसिकता भी बदलनी होगी. ऐसा नहीं होने तक सपनों के बोझ तले हर साल दर्जनों छात्रों की चिताएं जलती रहेगी.