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बंधुआ मजदूरी में फंसा पाकिस्तान

६ दिसम्बर २०१४

पाकिस्तान के ईंट भट्ठे में रंजन 40 साल से बतौर बंधुआ मजदूर काम कर रहे हैं. उन्हें जो वेतन मिलता वह उतना नहीं कि वह अपने मालिक का कर्ज चुका पाएं. लाखों लोग ऐसी ही जिंदगी बिता रहे हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

पाकिस्तान में 20 लाख लोग आज भी दासता की बेड़ियों में जकड़े हैं. ऐसे लोग कठिनाई और परिश्रम से भरी जिंदगी बिताने को मजबूर हैं. इसे आधुनिक दौर की दासता भी कहा जा सकता है. बंधुआ मजदूरी को खत्म करने के लिए कानून है लेकिन फिर भी यह प्रथा सालों से जस की तस है. हर साल हजारों बच्चे अभिभावकों द्वारा लिए गए कर्ज के चलते इस जाल में फंसते जाते हैं. पाकिस्तान के हैदराबाद के किनारे खुली फैक्ट्री में छोटे छोटे बच्चे गिली मिट्टी को सांचे में ढाल रहे हैं. जमीन पर पड़ी कच्ची ईंटें भट्ठे में जाने का इंतजार कर रही हैं. रंजन का बचपन और जवानी इन्हीं ईंट भट्ठों में गुजर गई. रंजन कहते हैं, "मैंने अपनी जिंदगी के 40 साल इसी चक्कर में बिता दिए, कभी इस फैक्ट्री में तो कभी उस फैक्ट्री में."

हफ्ते के सातों दिन वह भट्ठी में काम करते हैं, एक हजार ईंट पकने के बाद वह करीब 203 पाकिस्तानी रुपये कमाएंगे लेकिन हर पाई सीधे उनके "मालिक" के पास जाएगी.

अपने मालिक से छिप कर तीन बच्चों के पिता रंजन समाचार एजेंसी एएफपी से बात करते हैं, "मैंने अपने बच्चों के खान पान के लिए 40-50 हजार रुपये उधार लिए थे. मैं मरने के पहले इसे कभी चुका नहीं पाऊंगा, मेरे मरने के साथ ही यह कर्ज भी मरेगा." पिछले महीने वॉक फ्री फाउंडेशन ने ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स (वैश्विक गुलामी सूचकांक) जारी की थी. इस अभियान समूह का कहना है कि दुनिया भर में गुलामी के मामले में पाकिस्तान तीसरे स्थान पर आता है. इससे पहले भारत और चीन का नंबर है. ज्यादातर लोग ईंट बनाने और खेती किसानी का काम करते हैं. वॉक फ्री फाउंडेशन का कहना है कि सरकार को इस समस्या से निपटने के लिए कदम उठाने चाहिए जिसमें ईंट भट्ठियों को नियमित करना और दास प्रथा विरोधी कानून को लागू करना शामिल है.

मालिक को वेतन

खाना खरीदना, शादी में दिए जाने वाला दहेज और अस्पताल का खर्च, कर्ज के कारणों की कमी नहीं है. रंजन जैसे लाखों लोग अपने मालिक के पास जाते हैं ऐसा कर्ज ले लेते हैं जिसे वे कभी नहीं लौटा सकते. एक बार कर्ज ले लिया जाता है तो मालिक के पास भी कारणों की कमी नहीं जिसे वह जोड़ता चला जाए, हद से अधिक रहने का किराया और खाने के नाम पर मालिक ऐसे लोगों का कर्ज बढ़ाते जाता है. बंधुआ मजदूरों के पास कर्ज चुकाने का कोई मौका नहीं होता. रंजन कहते हैं, "हम जो कुछ भी कमाते हैं वह ऋणदाता के पास चला जाता है, जो हमें खाना देता है."

देश भर में ईंट्ठ भट्ठे और खेत इन्हीं कर्मचारियों के सहारे चलते हैं, जिन्हें बदले में दाल, चावल, तेल और प्याज दिया जाता है. कुछ छोटे ट्रेड यूनियन हालात सुधारने की कोशिश में लगे हुए हैं. मालिकों के पास पैरवी कर रहे हैं कि ऐसे लोगों का वेतन 500 पाकिस्तानी रुपये कर दिया जाए और वे अपने कर्मचारियों को ऋण चक्र में न फंसाएं. कुछ सालों पहले हैदराबाद में ईंट श्रमिक संघ की स्थापना करने वाले पुनो भील के मुताबिक, "यूनियन बनने के पहले श्रमिकों के नाम भी नहीं होते थे सिर्फ नंबर होता था. अगर किसी श्रमिक को नाम से यहां खोजने कोई आता तो उस शख्स को श्रमिक कहते कि मालिक से पूछो वही बता पाएगा."

लेकिन अच्छे प्रयासों के बाद भी संघ कठिन लड़ाई लड़ रहा है. कुछ मालिकों ने वेतन और हालात में सुधार कर लिया है लेकिन संघ एक भी बधुंआ मजदूर को अब तक आजाद नहीं करा पाया है.

एए/एजेए (एएफपी)