प्रेस नहीं है स्वतंत्र
३ मई २०१५जो प्रेस खुद को बंधनों में जकड़ा पाती है, वह जनमानस का भरोसा जीतने और जनाधार बनाने के सर्वोपरि लक्ष्य को हासिल करने से चूक जाती है. जाहिर है कि एक जिम्मेदार पत्रकारिता में कई तरह के नैतिक बंधनों का तो वैसे भी ध्यान रखना होता है. आजकल जनता समाचार पाने के लिए किसी एक संस्था या स्रोत तक सीमित नहीं रह गई है. सुनी सुनाई बातों से लेकर, दुनिया में घट रही तमाम गलत बातों पर लिखे जा रहे ब्लॉग्स तक, कई ऐसी चीजें हो रही हैं जो बड़े, रसूखदार लोगों को भी जिम्मेदारी के दायरे में रखने का काम करती हैं.
हो सकता है कि प्रेस की आजादी से कुछ चीजें और उलझती दिखें और ऐसे कई लोग भी हैं जो प्रेस को उत्पाती समझते हैं. लेकिन प्रेस को सिर्फ उसी स्थिति में नियंश्रित करने की जरूरत है जब वह नैतिकता की सीमाएं पार करे या उसकी किसी हरकत से जनहानि पहुंचने का खतरा हो. यह अपने आप में एक जटिल मुद्दा है कि असल में प्रेस इन सीमाओं को कब पार कर रही है यह कौन तय करे. ज्यादातर विवाद तो इतने दूर तक पहुंचते भी नहीं है. प्रेस और जनता दोनों ही के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसा विषय है जिसे सरकारों, कॉर्पोरेशनों, राजनैतिक एवं धार्मिक समूहों जैसी शक्तिशाली ईकाइयों के तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खतरों का सामना करना पड़ता है. ऐसा पूरी दुनिया में होता है, लेकिन बांग्लादेश जैसे राष्ट्र में जहां धोखाधड़ी के साये में हुए चुनावों से बनी सरकार की खुद की वैधानिकता पर सवालिया निशान लगा है, वहां विचारों की आजादी का शमन करना न्यायोचित असहमति का गला घोंटने और कट्टरपंथी कार्रवाई को सही ठहराने का एक बड़ा ही सुविधाजनक तरीका लगता है.
जाहिर है, बांग्लादेशी मीडिया में हमेशा से ही कई तरह की वर्जनाएं रही हैं. सेना तो सीमा से बाहर रही ही है, सबसे बड़े विज्ञापनदाता होने के कारण बड़े बड़े टेलीकॉम कॉर्पोरेशनों को मीडिया छेड़ती नहीं है. इसके अलावा भी कई दानदाता समुदाय हैं जिनका ध्यान रखा जाता है. हाल कि दिनों में तो सरकारी मीडिया चैनल भी ढाका सरकार के लिए प्रचार का साधन बन गए लगते हैं. कड़े आलोचकों को टॉक शो में आमंत्रित नहीं किया जाता. एंकरों का इस तरह घुमाकर सवाल पूछना आम है जिससे शासन की बेहतर छवि दिखे.
यह सारे मुद्दे काफी चिंताजनक हैं. मगर, मीडिया कंपनियों, 'संदिग्ध संपादकों' को सीधी धमकी मिलना और पत्रकारों, ब्लॉगरों पर हमले करवाना कहीं ज्यादा बड़ी परेशानी है. प्रशासन ने हाल के दिनों में असाधारण तौर पर बहुत बड़ी तादाद में 'कोर्ट की अवहेलना' के आरोप लगाए हैं जिससे भी भय का माहौल बन गया है. असहिष्णुता की इस संस्कृति के कारण ही स्वतंत्र विचारों वाले कई लोगों का बेहद हिंसक अंत हुआ है. विवेचनात्मक सोच रखने वालों की सबसे ज्यादा जरूरत आज से ज्यादा कभी महसूस नहीं हुई. और ऐसी सोच रखने वालों के लिए अब से ज्यादा खतरनाक समय भी कभी नहीं रहा.
1955 में बांग्लादेश के ढाका में जन्मे शाहिदुल आलम एक फोटोग्राफर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो अपनी कला का इस्तेमाल गरीबी और आपदाओं से घिरे देश के तमाम सामाजिक और कलात्मक संघर्षों को दर्ज करने के लिए करते हैं.