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पीसीओ गायब होने से बढ़ी बच्चों की मुसीबत

१९ मई २०१६

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में हर 8वें मिनट में एक बच्चा लापता होता है. गायब लोगों को कई बार गुलामी या देह व्यापार में झोंक दिया जाता है. अब इसमें गायब होते पब्लिक फोन बूथों की भी भूमिका बताई जा रही है.

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Bidergalerie Indien Kindesentführung
तस्वीर: DW/B. Das

भारत में आई मोबाइल क्रांति आज सबके सामने है. घर-घर में लैंडलाइन फोन ना हों लेकिन स्कूली बच्चों से लेकर किसानों और रिक्शे-ठेले वालों तक के पास मोबाइल मिल जाएगा. आम जिंदगी की एक जरूरत बन चुके मोबाइल फोन ने धीरे-धीरे पब्लिक फोन बूथ को गौण कर दिया. नतीजतन, आज की तारीख में सार्वजनिक फोन बूथ काफी कम हो चुके हैं और बहुत तलाशने पर ही दिखाई देंगे.

भारत में हर रोज औसतन चार सौ महिलाएं और बच्चे लापता हो जाते हैं. इन लोगों को ट्रैक करने का कोई कारगर तंत्र ना होने के कारण इनमें से अधिकांश का कभी पता नहीं चलता. बच्चों की मदद के लिए स्थापित चाइल्डलाइन इंडिया फाउंडेशन का कहना है कि इससे उन बच्चों के लिए भी समस्या बढ़ी है जो किसी अपहरणकर्ता के चंगुल से भाग भी निकले तो उसकी सूचना देने के लिए पोन बूथ नहीं पाएंगे. चाइल्डलाइन देश की इकलौती टोल-फ्री इमरजेंसी हेल्पलाइन है जो सड़क पर रहने वाले बेसहारा बच्चों या किसी मुश्किल में फंसे बच्चों की मदद को समर्पित है.

सन 1996 से शुरु हुई इस सेवा को पहले ज्यादातर फोन सार्वजनिक टेलिफोन बूथों और ऐसे पीसीओ से आते थे जहां कोई इंसान भी दुकान पर बैठा होता था. पिछले एक दशक में तेजी से गायब हुए इस तरह के बूथों और पीसीओ के कारण चाइल्डलाइन को लैंडलाइन से आने वाले ऐसे फोन कॉल भी कम हुए हैं. लेकिन यहां से एक नए तरीके की नींव भी पड़ी है जिससे मुसीबत में पड़े बच्चे अब भी मदद मांग सकें.

चाइल्डलाइन इंडिया फाउंडेशन के संचार और कूटनीति प्रयासों के प्रभारी निशित कुमार बताते हैं, "10 साल पहले तक, हर 10 में से चार कॉल्स सड़क वाले बच्चे खुद करते थे. अब प्रभावित बच्चे खुद शायद ही कभी फोन करते हैं - अक्सर होता ये है कि कोई और इंसान जिसने उन्हें देखा हो, फोन करके बताता है कि कोई बच्चा भीख मांग रहा है या फिर कोई उस बच्चे से बुरा बर्ताव कर रहा है."

इसके अलावा बच्चों के अपहरण जैसे कई मामलों में भी इसका बुरा असर पड़ा है. कुमार आगे कहते हैं, "हमारे लिए बूथ का गायब होना कोई अच्छी चीज नहीं रही. सड़कों के बच्चे या वे बच्चे जिन्हें अगवा किया गया हो या उनकी तस्करी की जा रही हो - उनके पास मोबाइल फोन नहीं होता, उन्हें कहीं से तो मदद मांगने के लिए कॉल करने की सुविधा होना चाहिए."

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सहयोग से चलने वाले चाइल्डलाइन के पास इसी साल 31 मार्च तक ऐसी करीब 94 लाख फोन कॉल्स आ चुकी हैं. ये पिछले साल इसी अवधि के दौरान दर्ज हुई कॉल्स का दोगुना है. हेल्पलाइन नंबर 1098 देश में बच्चों को मानव तस्करी और दूसरे तरह अपराध, दुर्व्यवहार से बचाने में अहम भूमिका निभा रहा है. संयुक्त राष्ट्र की मानें तो मानव तस्करी के मामले में दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता क्षेत्र है.

चाइल्डलाइन ने एक ऐसा टच-स्क्रीन कियॉस्क विकसित किया है, जो दिखने में करीब 4 फीट ऊंचा होगा और जिसके सामने किसी के खड़े होते ही वह चालू हो जाता है. इसे बनाने में फाउंडेशन ने भारत के ही कुछ मोबाइल सेवा प्रदाताओं की मदद ली है. इसमें कई क्षेत्रीय भाषाओं में आवाजें रिकॉर्ड की गई हैं जो उसके सामने खड़े व्यक्ति से उसकी भाषा में बात करता है और उसकी समस्या को उसी की आवाज में दर्ज कर लेता है. वहीं से उसे सीधे चाइल्डलाइन को फोन लगाने का विकल्प भी दिया जाता है.

स्क्रीन को छूते ही व्यक्ति की सारी बायोमीट्रिक सूचना दर्ज हो जाती है और उसकी तस्वीर भी खिंच जाती है जिससे आगे उसकी पहचान की जा सकेगी. अगले छह महीने में इस तरह के कियॉस्क सभी बड़े शहरों के रेलवे स्टेशनों के बाहर लगाने की योजना है. इसके बाद बाकी शहरों में भी कई सार्वजनिक स्थानों पर लगाया जाएगा. इनकी मदद से हर साल औसतन 25 लाख सूचनाएं मिलने का अनुमान है.

तस्करी के शिकार बनाए गए ज्यादातर पीड़ितों को ट्रेन से ही एक से दूसरी जगह ले जाया जाता है. भारतीय रेलवे ही पिछले तीन साल से लगातार हर साल करीब 4,000 ऐसे बच्चों को छुड़ा चुकी है, जिन्हें तस्कर या अपहरणकर्ता कहीं ले जाना चाहते थे. भारत के सभी मोबाइल फोनों में 2017 से एक पैनिक बटन होना भी अनिवार्य हो गया है.

आरपी/वीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)