पाकिस्तान ने उत्तर कोरिया की कितनी मदद की?
१५ सितम्बर २०१७परवेज हूदभाई पाकिस्तान के जाने माने परमाणु वैज्ञानिक हैं. उन्होंने इस्लामाबाद में डीडब्ल्यू के सत्तार खान के साथ खास इंटरव्यू में उत्तर कोरिया को पाकिस्तान की तरफ से दी गयी "परमाणु मदद", परमाणु अप्रसार संधि की प्रासंगिकता और उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम पर बात की.
परमाणु टेक्नोलॉजी के मामले में पाकिस्तान ने किस हद तक उत्तर कोरिया की मदद की है?
पाकिस्तान ने सेंट्रीफ्यूज टेक्नोलॉजी उत्तर कोरिया को दी है. लेकिन इससे उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम को सीधा फायदा नहीं हुआ क्योंकि उसका कार्यक्रम यूरेनियम सेंट्रीफ्यूज प्रक्रिया की बजाय प्लूटोनियम निकालने पर आधारित था.
पाकिस्तान की तरफ से उत्तर कोरिया को परमाणु जानकारी देने का सिलसिला कब शुरू हुआ और कब खत्म?
2003 में पाकिस्तानी वैज्ञानिक ए क्यू खान परमाणु तकनीक देने के मामले में पकड़े गये तो यह सिलसिला खत्म हो गया. यह साफ नहीं है कि इसकी शुरुआत कब हुई, लेकिन संभव है कि जब 1989 में बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं तो उसके कुछ समय बाद यह सब शुरू हुआ. मतलब उसी के बाद वाले सालों में कभी इसकी शुरुआत हुई होगी.
क्या पाकिस्तान के वैज्ञानिक ए क्यू खान अकेले ऐसे वैज्ञानिक हैं जिन्हें उत्तर कोरिया को परमाणु तकनीक देने के लिए जिम्मेदार माना जाए?
यह मान लेना बहुत मुश्किल है कि ए क्यू खान ने अकेले दम पर उत्तर कोरिया, ईरान और लीबिया को यह टेक्नोलॉजी दी होगी क्योंकि पाकिस्तान में बेहद कड़ी सुरक्षा में इसे रखा जाता है और पुलिस ही नहीं बल्कि सैन्य खुफिया तंत्र उसकी रखवाली करता है. इसके अलावा एक सेंट्रीफ्यूज आधे टन का होता है और यह संभव नहीं है कि उन्हें माचिस की डिब्बियों में रख कर भेजा गया होगा. इसका मतलब है कि इसमें और भी लोग शामिल रहे होंगे.
लेकिन पाकिस्तान में कुछ सैन्य जनरल उत्तर कोरिया की मदद करने से इनकार करते हैं क्योंकि पाकिस्तान के विपरीत उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम प्लूटोनियम आधारित है.
यह सही है कि उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार प्लूटोनियम आधारित हैं और यह प्लूटोनियम बम यूरेनियम बम जैसा नहीं है. पाकिस्तान ने उत्तर कोरिया को सेंट्रीफ्यूज सप्लाई किये थे, लेकिन उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम और पाकिस्तान के बीच कोई सीधा संबंध नहीं था.
उत्तर कोरिया की "मदद" करने के बदले में पाकिस्तान को क्या मिला?
उत्तर कोरिया को सेंट्रीफ्यूज देने के बदले पाकिस्तान को तथाकथित डुडोंग मिसाइलें मिलीं. ये तरल ईंधन से चलने वाली मिसाइल हैं जिन्हें ए क्यू खान की प्रयोगशाला को सौंपा गया और उन्होंने इनका नाम "गौरी" रखा. मुझे लगता है कि ये पाकिस्तान के मिसाइल शस्त्रागार का हिस्सा हैं. ये वैसी प्रभावी नहीं हैं जितनी ठोस ईंधन से चलने वाली मिसाइलें होती हैं. ठोस ईंधन से चलने वाली मिसाइलों में तैयारी की ज्यादा जरूरत नहीं होती है.
इसलिए निश्चित तौर पर लेन देन तो हुआ था. मुझे लगता है कि उत्तर कोरिया और पाकिस्तान दोनों को फायदा हुआ, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं.
क्या ए क्यू खान का "न्यूक्लियर नेटवर्क" अब भी काम कर रहा है?
कहना मुश्किल है कि इस तरह का नेटवर्क अभी काम कर रहा है या नहीं. पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम अब निगरानी में है और देश से बाहर परमाणु टेक्नोलॉजी भेजना बहुत मुश्किल है.
क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान की तरह उत्तर कोरिया को भी परमाणु शक्ति मान लेना चाहिए?
अब यह एक तथ्य है कि उत्तर कोरिया ने छह परमाणु परीक्षण कर लिये हैं और आखिरी परीक्षण शायद हाइड्रोजन बम का था. निश्चित तौर पर यह उपलब्धि उसे पाकिस्तान से भी आगे ले जाती है और परमाणु कार्यक्रम भारत के बराबर हो जाता है.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि परमाणु शक्ति वाला उत्तर कोरिया अब एक हकीकत है, इसलिए अब उत्तर कोरिया को भी उसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए जिसमें भारत और पाकिस्तान हैं.
क्या परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) अब भी प्रभावी और प्रासंगिक है?
एक समय एनपीटी उपयोगी थी क्योंकि इससे परमाणु अप्रसार में कमी आयी थी. जितने ज्यादा देशों के पास परमाणु हथियार होंगे, दुनिया उतनी ही ज्यादा खतरनाक होगी.
लेकिन अब एनपीटी प्रभावी नहीं रही है. बात यह है कि परमाणु शक्ति सम्पन्न देश संधि के आर्टिकल 6 को लेकर सहमत नहीं हैं और उन्होंने परमाणु हथियारों को कम करने के लिए कदम नहीं उठाये हैं. इसके विपरीत वे पहले ज्यादा बेहतर और प्रभावी परमाणु हथियार बना रहे हैं. इसलिए हमें एक नयी और व्यापक संधि की जरूरत है.