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विश्व युद्ध जैसे हालात

२० जून २०१४

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े भयावह हैं. दुनिया भर में 5 करोड़ से ज्यादा लोग घरबार छोड़कर भागने को मजबूर हैं. यह आंकड़ा दूसरे विश्व युद्ध के जैसा है. इस विस्थापन का सबसे बड़ा शिकार बच्चे बन रहे हैं.

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दुनिया भर में पांच करोड़ से भी ज्यादा लोगों को 2013 में अपना घरबार और देश छोड़कर दूसरों के यहां शरण लेनी पड़ी. आमतौर पर बड़े बड़े युद्धों में ही ऐसी त्रासद स्थिति देखने को मिलती है. मगर पिछले साल की स्थिति की तुलना द्वितीय विश्व युद्ध के समय हुए पलायनों से की जा सकती है. यूएन की रिफ्यूजी एजेंसी ने जेनेवा में बताया कि तबसे लेकर पहली बार साल में पांच करोड़ विस्थापितों का आंकड़ा पार हुआ है. इस आंकड़े में वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें देश के बाहर ही नहीं अपने देश में भी समस्याग्रस्त इलाकों से दूसरी जगहों में शरण लेनी पड़ी है. 2013 में ऐसे कुल 5.12 करोड़ लोगों की पुष्टि हुई है, पिछले साल यह संख्या करीब साढ़े चार करोड़ थी.

नाटकीय स्थितियां

यूएन की रिफ्यूजी एजेंसी ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया है कि विस्थापितों की संख्या में हुई यकायक बढ़ोत्तरी के लिए सीरिया में बने गृह युद्ध के हालात काफी हद तक जिम्मेदार हैं. केवल मध्यपूर्व के देशों में ही 65 लाख लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए हैं जबकि करीब 25 लाख सीरियाई लोग देश की सीमा से बाहर निकल कर सुरक्षित ठिकानों की तलाश में भागे हैं. इसके अलावा दक्षिणी सूडान, केंद्रीय अफ्रीकी गणराज्य, यूक्रेन और इराक में भी लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं.

इसके पहले के सालों में फिलिस्तीन, अफगानिस्तान और सोमालिया से भागे हुए विस्थापित लोग आज भी विश्व में सबसे ज्यादा हैं. रिफ्यूजी एजेंसी के उच्चायुक्त आंटोनियो गुटेरेश कहते हैं, "जब भी संकट पैदा होते हैं तो मानवाधिकारों के लिहाज से कई नाटकीय स्थितियां पैदा होती हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ऐसे संकटों से बचने और उन्हें समय रहते सुलझा लेने की क्षमता काफी हद तक खो चुका है." यूएन की सुरक्षा परिषद में कई अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर गतिरोध की स्थिति बनी रही जिससे अनगिनत लोग प्रभावित हुए.

बच्चे बने मूक शिकार

इस समय दुनिया के 86 फीसदी रिफ्यूजी विकसित देशों में रह रहे हैं. पाकिस्तान, ईरान और लेबनान में इस समय लाखों रिफ्यूजी रह रहे हैं. यूएन एजेंसी जिनको लेकर सबसे ज्यादा चिंतित है, वे हैं बच्चे. आंकड़ो से साफ है कि दुनिया भर के कुल रिफ्यूजियों में आधे से ज्यादा 18 साल से कम उम्र के थे. इसमें अफगानिस्तान, सोमालिया और सीरिया के कम उम्र के लोग सबसे ज्यादा है. इसके अलावा 2013 में ऐसे करीब 25,300 बच्चे थे जो अपने परिवार से बिछड़ गए थे और शरण की आस में दूसरों के साथ विदेशियों की दहलीज पर पहुंच गए.

भारत में भी कई समुदाय आंतरिक पलायनों के शिकार बन चुके हैं. इनमें सबसे प्रमुखता से नाम आता है कश्मीरी पंडितों का जिन्हें 1990 से ही अपने घरों से भागने को मजबूर होना पड़ा. कश्मीरी पंडित बेघर हो गए और अब उनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन के कारण दो दशकों से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी कश्मीरी पंडितों को निर्वासन में रहना पड़ रहा है. माना जाता है कि करीब 4 लाख कश्मीरी पंडितों को जम्मू कश्मीर घाटी से अपना घरबार छोड़कर भागना पड़ा था और वे आज भी अपने घर वापस नहीं लौट पाए हैं.

शरण देने में जर्मनी आगे

यूएन ने बताया है कि यूरोपीय संघ में इस साल पिछले साल के मुकाबले 17 फीसदी ज्यादा लोगों ने शरण लेने के लिए अर्जी दर्ज कराई. इनमें ज्यादातर लोग सीरिया, अफगानिस्तान और सोमालिया जैसे देशों के युद्ध प्रभावित इलाकों से आए हैं. यूरोप में शरणार्थियों का मुद्दा काफी संवेदनशील माना जाता है क्योंकि आम धारणा यह है कि उपलब्ध जनसुविधाओं और सीमित नौकरियों के लिए वे ईयू के नागरिकों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं.

ईयू के आंकड़ों का लेखा जोखा रखने वाली एजेंसी यूरोस्टैट ने बताया है कि संघ के 28 सदस्य देशों ने पिछले साल कुल 135,700 लोगों को शरण दी. साल 2005 से लेकर अब तक दर्ज किया गया यह सबसे बड़ा आंकड़ा है. ईयू में जर्मनी और स्वीडन लोगों को शरणार्थी का दर्जा देने वाले देशों में सबसे आगे हैं. इसके बाद फ्रांस, इटली और ब्रिटेन का नंबर आता है. इन्हीं पांच देशों ने मिलकर करीब 70 फीसदी लोगों को शरण दी है.

आरआर/आईबी (डीपीए, रॉयटर्स)