पहचान और कानून के बीच फंसा हाथ रिक्शा
८ जुलाई २०१६भारत में अकेले कोलकाता में ही अब भी ऐसे हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शे चलते हैं. इस पर अक्सर विवाद भी होता रहा है. इसे अमानवीय करार देते हुए राज्य सरकार कई बार इन पर पाबंदी लगा चुकी है. लेकिन बाद में सामाजिक संगठनों और हेरिटेज विशेषज्ञों के दबाव में पाबंदी वापस ले ली गई. अब महानगर में इन रिक्शेवालों की जिंदगी पर आयोजित एक फोटो प्रदर्शनी ने फिर इस मुद्दे को उभारा है.
कोई 10 साल पहले सरकार ने इन रिक्शों के लाइसेंस का नवीनीकरण बंद कर दिया था. सौ साल तक इस महानगर की पहचान रहे यह रिक्शे अब खुद अपनी पहचान के संकट से जूझ रहे हैं. कोलकाता में ऐसे कोई 20 हजार रिक्शे हैं. 'दो बीघा ज़मीन' और 'सिटी ऑफ़ जॉय' जैसी फिल्मों में हाथरिक्शा चलाने वाले के दुख-दर्द का बेहद सजीव चित्रण किया गया था. महानगर में इन रिक्शों और इनके चलाने वालों की जिंदगी पर आधारित एक फोटो प्रदशर्नी के बाद एक बार फिर यह बहस तेज हो गई है कि इस अमानवीय काम को जारी रखना चाहिए या नहीं. प्रदर्शनी के उद्घाटन के मौके पर बॉलीवुड अभिनेता ओम पुरी ने इनको जारी रखने की वकालत की. वह कहते हैं, "हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शे कोलकाता की पहचान और इस शहर के इतिहास का हिस्सा हैं. उनको मरने नहीं देना चाहिए." खुद इस अभिनेता ने भी सिटी आफ जॉय में एक रिक्शेवाले का किरदार निभाया था.
इन रिक्शों और उनको चलाने वालों की तस्वीरें खींचने वाले फोटोग्राफर राजेश गुप्ता कहते हैं, "रिक्शेवालों से बातचीत करने पर मुझे महसूस हुआ कि उनकी आंखों में कोई सपना नहीं है. वे अपने बनाए घेरे में जीने के लिए विवश हैं और चाह कर भी उससे बाहर नहीं निकल सकते." गुप्ता बताते हैं कि बरसात के सीजन में जब जलजमाव की वजह से परिवहन के दूसरे साधन फेल हो जाते हैं, तब इन लोगों की सहायता से ही जीवन धीरे-धीरे चलता रहता है.
एक अन्य फोटोग्राफर कौन्तेय सिन्हा कहते हैं, "रिक्शा खींचने वाले कोलकाता की पहचान हैं." सिन्हा बताते हैं कि इस प्रदर्शनी का मकसद गुमनामी में जीवन गुजारने वाले महानगर के इन असली हीरो को उनका बाजिब सम्मान दिलाना था. प्रदर्शनी के दौरान 45 रिक्शेवालों को सम्मानित किया गया. बिहार का रहने वाला रिक्शाचालक रामू कहता है, "उसने अपने जीवन में कभी इस तरह सम्मान पाने और एक अभिनेता से बातचीत करने की कल्पना तक नहीं की थी."
पुराना है कोलकाता से नाता
हाथ से खींचे जाने वाले इन रिक्शों का कोलकाता से नाता बहुत पुराना है. कोलकाता में इन रिक्शों की शुरूआत 19वीं सदी के आखिरी दिनों में चीनी व्यापारियों ने की थी. तब इसका मकसद सामान की ढुलाई थी. लेकिन बदलते समय के साथ ब्रिटिश शासकों ने इसे परिवहन के सस्ते साधन के तौर पर विकसित किया. धीरे-धीरे यह रिक्शा कोलकाता की पहचान से जुड़ गया. दुनिया के किसी भी देश में अब ऐसे रिक्शे नहीं चलते. यह रिक्शे कोलकाता आने वाले विदेशी पर्यटकों को भी लुभाते रहे है.
हाथ से खींचे जाने वाले यह रिक्शे लोगों को ऐसी गलियों में भी ले जा सकते हैं जहां दूसरी कोई सवारी नहीं जा सकती. सरकार भले इसे बार-बार अमानवीय करार देकर इन पर पाबंदी लगाने का प्रयास करती हो, रिक्शावाले इसे अमानवीय नहीं मानते क्योंकि ये उनके रोजीरोटी कमाने का जरिया है. बीते तीन दशकों से रिक्शा चलाने वाले मनोहर मंडल कहते हैं, "मैं और कोई काम ही नहीं जानता. यह रिक्शा ही मेरे परिवार की आजीविका का साधन है."