पराया हो गया है फरीद का अपना वतन
२४ जनवरी २०१७फरीद का असली नाम फरीद नहीं है. लेकिन वह अपना असली नाम नहीं बताना चाहता. इंटरव्यू के दौरान वह कई बार यह आशंका व्यक्त करता है कि उसके साथ कुछ हो सकता है, तालिबान या आईएस को उनका पता मिल सकता है. उसकी बातों से मायूसी झलकती है. वह पूरी तरह निराश है, "मुझे बहुत डर लगता है. मुझे अफगानिस्तान में पराया सा लगता है. मैं यहां किसी को नहीं जानता." फरीद 22 साल का है. जब वह छोटा था उसके माता पिता नहीं रहे. उसे शक है कि तालिबान ने उन्हें मार डाला.
फरीद नाबालिग शरणार्थी के रूप में जर्मनी पहुंचा था. उसने भाषा सीखी. वह जर्मनी में पांव जमाना चाहता था. दोस्तों और राहतकर्मियों की मदद के बावजूद उसे शरण पाने में कामयाबी नहीं मिली. जर्मनी का उसका सपना 14 दिसंबर को खत्म हो गया, फ्रैंकफर्ट के हवाई अड्डे पर. अफगानिस्तान के 33 दूसरे लोगों के साथ उसे एक विमान पर चढ़ाकर वापस भेज दिया गया. वह बताता है, "विमान पर मेरी दायीं और बायीं ओर पुलिस वाले बैठे. मैं टॉयलेट भी गया तो एक मेरे पीछे आता था और इंतजार करता था."
काबुल में अकेला
अगले दिन उसके पांवों के नीचे अफगानिस्तान की जमीन थी. हवाई अड्डे पर अफगानिस्तान के शरणार्थी मंत्रालय और अंतरराष्ट्रीय आप्रवासन संगठन के अधिकारियों ने उनका स्वागत किया लेकिन फरीद का कहना है कि उसे उनसे कोई मदद नहीं मिली. फरीद कहता है, "किसी ने हमारा ख्याल नहीं रखा. हम अपने को एकदम अकेला महसूस कर रहे थे." फरीद को पता नहीं था कि वह कहां जाए. पहले तो वह अपने शहर गया, अपने रिश्तेदारों को खोजा, लेकिन वे अब वहीं नहीं रहते. सुरक्षा की हालत खराब है. फरीद वापस काबुल लौट आया.
इस समय उसके पास 400 यूरो थे, जो उसे उसके एक जर्मन परिचित ने दिए थे. उसे एक सस्ता कमरा मिल गया जहां वह इस समय रह रहा है. आधा पैसा खर्च हो चुका है. सारा खत्म हो जाएगा तो वह क्या करेगा, उसे पता नहीं. वह बताता है, "मैं हर सुबह सात बजे काम की तलाश में घर से निकलता हूं. मैं कुछ भी करने को तैयार हूं, मेहनत का काम भी ताकि अपने पांवों पर खड़ा हो सकूं." लेकिन अब तक उसे कामयाबी नहीं मिली है. फरीद कहता है कि वापस भेजे गए शरणार्थियों की मदद करने वाला कोई नहीं और वह किसी पर भरोसा भी नहीं कर सकता. जर्मनी से उसके साथ वापस गए लोगों के साथ उसका कोई संपर्क नहीं है.
आलोचना, विरोध और अपील
इस पहली वापसी के लिए भी जर्मन गृह मंत्री थोमस डे मेजियेर को ताजा वापसी की ही तरह काफी आलोचना सहनी पड़ी. विपक्ष की ओर से लेकिन अपनी कतारों से भी. हवाई अड्डे पर शरणार्थियों को वापस भेजे जाने के विरोधियों ने प्रदर्शन किया. खुद मंत्री ने अपने फैसले को "शरण व्यवस्था को कार्यक्षम बनाए" रखने के नाम पर सही और जरूरी ठहराया. उन्होंने ये भी कहा कि वापस भेजे गए एक तिहाई लोग सजायाफ्ता थे. जर्मन सरकार अपने इस विचार पर अडिग है कि अफगानिस्तान आंशिक रूप से सुरक्षित है इसलिए वहां ठुकराये गए शरणार्थियों को वापस भेजा जा सकता है.
लेकिन 'प्रो असुइल' जैसे शरणार्थी समर्थक संगठनों के लिए यह एक स्कैंडल है. उसने संयुक्त राष्ट्र के आकलन का हवाला देकर अफगान शरणार्थियों के साथ बर्ताव में बदलाव की मांग की है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संगठन ने जर्मन गृह मंत्रालय द्वारा पूछे जाने पर दिसंबर 2016 में कहा था कि अफगानिस्तान में सुरक्षा हालात पिछले कुछ महीनों में और खराब हुए हैं. उसके अनुसार देश का पूरा इलाका यूरोपीय शरणार्थी कानून के हिसाब से घरेलू हथियारबंद विवाद से प्रभावित है. लगातार बदलती परिस्थितियों के कारण संगठन देश के सुरक्षित और असुरक्षित इलाकों में कोई अंतर नहीं करता.
हर दिन एक कतरा मौत
फरीद कोई अपराधी नहीं है. लेकिन उसे लगता है कि उसे सजा दी गई है, क्योंकि उसे अफगानिस्तान वापस भेज दिया गया है. एक देश जो उसके लिए पराया है, जहां वह न तो खुश है और न ही सुरक्षित. "मेरी जिंदगी खतरे में है. यहां मेरा कोई भविष्य नहीं है." वह अभी भी फिर से जर्मनी वापस जाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है. लेकिन वह कहता है कि "मेरे पास धन नहीं है, मैं कहां से पैसा दूंगा?" पहली बार भागने के लिए उसने अपने माता-पिता के धन का इस्तेमाल किया था.
हर दिन शाम को फरीद अपने कमरे में लौट जाता है. अंधेरे में वह सड़क पर नहीं रहना चाहता. उसे डर लगता है. कभी कभी वह अपने परिवार का सपना देखता है, लेकिन इस सपने का पूरा होना बहुत दूर लगता है. वह एक टूटा हुआ, बिखरा हुआ इंसान है. लगातार रहने वाले डर ने उसे निराश कर दिया है, जिंदगी से निराश. वह कहता है, "मौत भी यहां जीने से बेहतर है. इस जिंदगी का मतलब है हर दिन एक कतरा मौत."