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पब्लिक ब्रॉडकास्टर की उलझनें

५ मई २०१४

दूरदर्शन पर बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू पर विवाद छिड़ गया है. तनावपूर्ण चुनाव प्रचार के दौरान हुआ यह विवाद सार्वजनिक प्रसारकों के स्तर, उनकी प्रतिष्ठा और उनकी स्वायत्तता को लेकर भी है. आखिर सबको अवसर क्यों नहीं?

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तस्वीर: uni

नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू के कुछ हिस्से संपादित किये गये थे. ये तो खैर किसी भी संस्थान का विशेषाधिकार है, लेकिन ऐसी चीजें संपादित की गईं और ऐसा करने के लिए बताया गया कि दबाव था, तो मामला चिंताजनक और कांग्रेस के लिए हास्यास्पद हो गया. आखिर क्या जरूरत पड़ी वे अंश हटाने की जिनके न हटने से किसी की सेहत पर कोई असर न पड़ता. न कांग्रेस की न सोनिया, प्रियंका या अहमद पटेल और न ही बीजेपी या मोदी की. लेकिन किसी न किसी को किसी न किसी का डर रहा होगा कि चला दिया तो गर्दन नपेगी. चल जाता तो ऐसी छीछालेदर तो न होती जो अब असंपादित हिस्सा सार्वजनिक होने के बाद दिखती है. मोदी जैसे नेता, जो खुद लोकपाल और आरटीआई में हीलहवाली के आरोपों में घिरे रहे हैं, वे लगे सरकार को तोहमत भेजने और प्रसार भारती की स्वायत्तता बहाली की मांग करने.

प्रसार भारती से जुड़ा ये विवाद होता ही न अगर उसके पास कोई वास्तविक स्वायत्तता होती. उसके पास बेशक ऐसे कड़े पेशेवर होंगे जो ठोस पत्रकारीय मूल्यों वाली संपादन क्षमता से लैस हों लेकिन उनके ऊपर मंत्रालय का कोई बड़ा बाबू या अधिकारी होगा तो वे क्या करेंगे. असल में समस्या की जड़ गहरी है. भारत सरकार की कोई संचार नीति नहीं रही है. कृषि, शिक्षा, उद्योग, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में नीतियां बनी हैं लेकिन मास मीडिया के क्षेत्र में ऐसा नहीं हुआ है. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि सरकारें मुक्त प्रेस की अवधारणा पर कुछ अंकुश लगाए रखने की अपनी रणनीति के तहत ही ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन पर अपना नियंत्रण जारी रखना चाहती रही हैं.

1989 में सत्ता में आई राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने ब्रॉडकास्टिंग के मुद्दे पर पहले कैबिनेट पेपर प्रस्तुत किया और उसके बाद दिसंबर 1989 में प्रसार भारती बिल पेश किया. बिल में 1979 के प्रसार भारती बिल के कुछ शेड्स भी थे. विदेशी सैटेलाइट टेलीविजन के फैलाव और असर को देखते हुए सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने 1991 में वर्धन कमेटी का गठन किया. यूं इसका मकसद था 1990 के प्रसार भारती एक्ट की फिर से जांच करना. संयुक्त मोर्चा सरकार ने आगे बढ़कर राष्ट्रीय मीडिया नीति बनाए जाने की वकालत की. मई 1997 में संसद में प्रसारण बिल पेश किया गया. इस बिल से जुड़ी एक अहम बात सुप्रीम कोर्ट का 1995 का निर्देश है, जिसमें कहा गया था कि वायु तरंगें जनता की संपत्ति हैं. सरकार को वायुतरंगों के इस्तेमाल को विनियमित करने और नियंत्रित करने के लिए समाज के सभी वर्गों और रुचियों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक स्वतंत्र स्वायत्त सार्वजनिक संस्था का गठन करना चाहिए. 23 नवंबर 1997 को प्रसार भारती अस्तित्व में आया. ये एक वैधानिक स्वायत्त संस्था बताई गई जो देश का सार्वजनिक प्रसारणकर्ता भी था. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन इसके अधीन आ गये. कागज पर तो स्वायत्तता आ गई लेकिन पर्दे के पीछे डोर केंद्र सरकार के हाथों में रही.

ताजा मामले पर लौटें. प्रसार भारती के सीईओ जवाहर सरकार ने इंटरव्यू विवाद के बाद एक कड़ा पत्र जारी किया और उन्होंने मंत्रालय पर ऑपरेशनल स्वायत्तता न देने के लिए सवाल उठाए. प्रसार भारती के कामकाज, नियुक्तियों और पदोन्नति जैसे मामलों पर दखल की बात भी उठाई. उनकी एक प्रमुख पीड़ा ये भी है कि सरकार ने उन्हें कई ऊंचे पदों पर बाहर से प्रोफेश्नल्स मंगवाने और उन्हें नियुक्ति दिलाने के प्रस्ताव को हरी झंडी नहीं दी. उनका कहना है कि अगर प्रसार भारती के पास कम से कम ये दो स्वायत्तताएं होतीं तो एक इंटरव्यू का इस तरह से तिल का ताड़ न बनता.

इसी विवाद की रोशनी में ये भी देखा जाना चाहिए कि दूरदर्शन पर मोदी के इंटरव्यू के प्रसारण को संतुलित करने के लिए जरूरी था कि सत्ता पक्ष से कोई इंटरव्यू लिया जाता. राहुल या सोनिया गांधी का. जवाहर सरकार का दावा है कि इंटरव्यू को बैलेंस करने के लिए समांतर इंटरव्यू की दरकार थी और इसके लिए कोशिश भी पूरी की गई थी. तो क्या ये इंटरव्यू अगर राहुल से प्रस्तावित था तो उन्होंने क्या वक्त नहीं दिया? अगर नहीं तो क्यों? मोदी को दूरदर्शन पर प्लेटफॉर्म देकर, एक अलग नजरिए से देखा जाए तो सरकार ने उनकी ही मदद की है और सरकार के प्रतिनिधि कह सकते हैं देखिए ये है हमारी स्वायत्तता. विपक्षी नेता को पूरी स्पेस और विवाद भी उनका!

इस लिहाज से कम से कम बीजेपी को शोर मचाने का हक नहीं. स्वायत्तता पर मोदी भले ही कांग्रेस पर निशाना साधें लेकिन साढ़े छह साल तो बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार भी केंद्र में रही है. प्रसार भारती की भावना को उसी समय चरितार्थ कर देते. इधर चुनावी मौका है तो हमला करने में क्या हर्ज. लेकिन पब्लिक ब्रॉडकास्टर की आजादी को लेकर राजनैतिक दल ईमानदारी और नैतिक साहस दिखाने से हिचकते रहे हैं. वरना प्रसार भारती अपने जन्म से लेकर आज तक इस तरह न कलपता रहता.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादन: महेश झा