पतन की ओर बढ़ते अरब देश
२० मई २०१५अमेरिकी रक्षाविभाग के प्रवक्ता कर्नल स्टीव वॉरेन के मुताबिक रमादी पर कब्जा नि:संदेह इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई को लगा बड़ा झटका है, लेकिन इसे ज्यादा बढ़ा चढ़ा कर भी नहीं देखना चाहिए. उन्होंने कहा कि शहर पर दोबारा नियंत्रण पा लिया जाएगा. अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने भी कुछ इसी तरह की सकारात्मक प्रतिक्रिया दी. उन्होंने विश्वास जताया कि रमादी को अगले कुछ दिनों में ही वापस हासिल कर लिया जाएगा.
अगर खालिस सैन्य शब्दों में बात की जाए तो हो सकता है कि ये दो लोग जो कह रहे हैं वह सही हो. आठ महीने से इलाके में चल रहे हवाई हमलों ने बेशक इस्लामिक स्टेट को कमजोर किया है. कट्टरपंथी समूह की आय के जरिये घट रहे हैं, वे कोबानी और तिकरित से नियंत्रण खो चुके हैं, और शायद बहुत ज्यादा दिनों तक रमादी पर कब्जा नहीं जमाए रख सकेंगे. लेकिन सवाल यह है कि सफलता किस कीमत पर आएगी?
इंसानी जान की कीमत
हर बार की तरह, जिस सिक्के से इस तरह के संघर्षों को चुकाया जाता है वह है इंसानी जान. अब तक रमादी में कम से कम 500 महिलाओं और पुरुषों के मरने की खबर है. वहां से करीब 25,000 लोग विस्थापन कर चुके हैं, जो संख्या और बढ़ने की ही संभावना है. या तो आईएस के जुल्मों के कारण या फिर अमेरिकी हवाई हमलों का सामना कर रहे आईएस और शिया मिलिशियाओं के बीच संघर्षों के कारण.
एक ऐसा इलाका जहां शिया और सुन्नियों के झगड़े को ताकत के खेल में इस्तेमाल किया जाता रहा है, आतंकवाद और खून खराबे का बहाना बनाया जाता रहा है, यह सब कुछ आग से खेलने जैसा लगता है. एक भयानक खेल जिसका नतीजा ना जाने क्या होगा. हालांकि यह माना जा सकता है कि इस्लामिक स्टेट को इराक और सीरिया में निकट भविष्य में हराया जा सकता है. लेकिन इन देशों के पास तब तक क्या बचेगा, यह एक अहम सवाल है.
आईएस एक मजबूत लड़ाका समूह रहेगा क्योंकि इसे पता है कि आंतरिक फूट का फायदा कैसे उठाना है, जो कि वर्तमान में तो इन इलाकों में है ही, भविष्य में भी दिखाई देगी. और ऐसा सिर्फ सीरिया, इराक, यमन और लीबिया में ही नहीं. आज की तारीख तक एक के बाद एक अरब देश आंतरिक गुत्थियों, पारंपरिक लड़ाईयों और जातीय संघर्षों की भेंट चढ़े हैं जिसका अंत नजर नहीं आता. इस तरह की आंतरिक फूट वाले राज्यों में आईएस, अल कायदा और उनके जैसे अन्य समूह भय और आतंकवाद फैलाने में कामयाब होते रहेंगे.
आवाजों का दबाया जाना
अरब देशों के राजनेता कहना पसंद करते हैं, "युवा हमारा भविष्य हैं". लेकिन उन्हें खतरे की घंटी सुनाई देनी चाहिए जब उकताए झुंझलाए युवा भविष्य की उम्मीदों के बगैर सड़कों पर फिरते रहते हैं या यूरोप की ओर देखते हैं, या फिर सैन्य संघर्षों में शामिल होने की राह देखने लगते हैं.
ऐसे अलार्म या किसी भी विरोध को अरब विश्व के गरीब देशों के शासक भरपूर ताकत के साथ दबा देते हैं, जैसे मिस्र के अब्देल फतेह अल सिसी और रईस खाड़ी अमीरात के शासक. खाड़ी के देशों के पास कम से कम मजबूत आर्थिक और सामाजिक ढांचा है कि वे अरब विश्व के पतन के खिलाफ कठोर संकेत भेज सकते हैं. इलाके में स्थानीय सहयोग की एक नई परंपरा की शुरुआत होनी चाहिए. जिनमें गैर अरब देश भी शामिल हों, जैसे ईरान और तुर्की. इसका मकसद होना चाहिए पारंपरिक दुश्मनी, नफरत और हिंसा के चक्र को तोड़ना. शिक्षा, स्वतंत्रता और समृद्धि के लिए सामूहिक प्रयास होने चाहिए.
पूरा इलाका एक ही जैसी समस्याओं से जूझ रहा है और सभी को नई दूरदर्शिता की जरूरत है. हालांकि इन सब में से खाड़ी के सुन्नी शासक इस दिशा में सबसे ज्यादा नाकाम रहे हैं. दिन पर दिन वे अपने शिया दुश्मन देश ईरान को खतरे की तरह देख रहे हैं. सिर्फ अपनी खुद की ताकत को मजबूत करने के लिए वे इलाके की आंतरिक फूट को हथियार बना रहे हैं. और उसके ऊपर यह कि वे अरब प्रायद्वीप के सबसे गरीब देश पर बमबारी कर रहे हैं. किसी में इतनी दूरदर्शिता नहीं कि क्या करना चाहिए, ना खाड़ी में ना ही रमादी में.