न्यायिक अनुशासन की नई व्यवस्था जरूरी
१६ फ़रवरी २०१६इस बात से शायद ही कोई इनकार करे कि स्वाधीन भारत में पिछले लगभग सात दशकों का इतिहास लोकतांत्रिक संस्थाओं से आम नागरिक के मोहभंग का इतिहास रहा है. विधायिका यानी विधानसभा और संसद तथा कार्यपालिका यानी सरकार में लोगों का भरोसा लगातार कम होता गया है. लेकिन आज भी आम नागरिक को न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है. यह सच है कि निचली अदालतों में भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है लेकिन ऊपर की अदालतों में वह बहुत कम है. अक्सर अदालतें जनहित के मामलों में हस्तक्षेप भी करती हैं और सरकार को ऐसे निर्देश देती हैं जिनसे जनता को राहत मिले. विधायक, सांसद, मंत्री और अफसर निरंकुश आचरण कर सकते हैं, लेकिन जज नहीं क्योंकि उनका वैधानिक दायित्व निरंकुश आचरण पर अंकुश लगाना है.
लेकिन अगर जज ही निरंकुश आचरण करने लगे तो फिर आम नागरिक के लिए अंतिम शरणस्थल भी नहीं बचेगा और यह बहुत भयावह स्थिति होगी. न्यायपालिका की अपनी आंतरिक व्यवस्था और अनुशासन है. यदि स्वयं जज ही उसे तोड़ने लगे तो फिर क्या उम्मीद रह जाएगी? समस्या यह है कि यदि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का कोई जज भ्रष्ट या निरंकुश आचरण करने पर उतारू हो ही जाए, तो भी उसके खिलाफ कुछ खास नहीं किया जा सकता. भारत के चीफ जस्टिस को समूचे देश के न्यायतंत्र का मुखिया माना जाता है. लेकिन उन्हें भी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी जज के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है. अधिक-से-अधिक हाईकोर्ट के जज का एक हाईकोर्ट से दूसरे में तबादला कर सकते हैं या सुप्रीम कोर्ट के जज को कोई काम न देकर न्यायिक प्रक्रिया से अलग कर सकते हैं. लेकिन ऐसा भी स्थायी रूप से नहीं किया जा सकता. जज को केवल महाभियोग चलाकर संसद द्वारा ही हटाया जा सकता है, वह भी दो-तिहाई बहुमत द्वारा. अभी तक केवल दो बार ऐसा अवसर आया है. पहली बार 1991 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी. रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग चलाया गया लेकिन वह पारित न हो सका. दूसरी बार 2009 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग का प्रस्ताव पारित हो गया था लेकिन लोकसभा द्वारा विचार करने के एक दिन पहले ही उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था ताकि सेवानिवृत्त होने के बाद मिलने वाले लाभों से वे वंचित न हो जाएं. इन दिनों सिक्किम हाईकोर्ट के जस्टिस पी. डी. दिनकरण के खिलाफ महाभियोग का मामला चल रहा है.
मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस सी. एस. करणन ने अपने निरंकुश और अमर्यादित आचरण से ऐसी ही स्थिति पैदा कर दी है और लगता है उन्हें भी महाभियोग का सामना करना पड़ सकता है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने उनके तबादले का आदेश दिया था, लेकिन करणन ने उसी पर रोक लगाने का आदेश जारी करके उसे न केवल चीफ जस्टिस को बल्कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों के अलावा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और लोकजनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान और बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती के पास भी भेज दिया. करणन ने चेन्नई के पुलिस कमिश्नर को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों के खिलाफ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के उत्पीड़न के संबंध में बने कानून के तहत केस दर्ज करने का निर्देश भी दिया है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने उनसे सभी न्यायिक काम वापस ले लिया है, लेकिन जस्टिस करणन का दावा है कि इससे उनके न्यायिक अधिकारों पर कोई असर नहीं पड़ता. उनका आरोप है कि उनके दलित होने के कारण उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है.
यह एक अभूतपूर्व स्थिति है. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि किसी जज से सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के आदेश को ही चुनौती दे दी हो और सर्वोच्च न्यायालय के जजों के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज किया हो. ऐसे में न्यायिक अनुशासन को बनाए रखने के लिए जस्टिस करणन पर महाभियोग ही चलाया जा सकता है. लेकिन उसके लिए पर्याप्त संख्या में सांसदों को लोकसभा अध्यक्ष एवं राज्यसभा के सभापति को ज्ञापन देना होगा. इसके बाद यदि महाभियोग की अनुमति मिल गई, तो भी उसकी प्रक्रिया काफी लंबी और परिणाम अनिश्चित है. इसलिए विधिवेत्ताओं, चीफ जस्टिस और सरकार को विकल्प के बारे में सोचना होगा. वर्तमान व्यवस्था न्यायपालिका की स्वायत्तता को संवैधानिक संरक्षण देने के लिए बनाई गई है. लेकिन इसका दुरुपयोग होने की संभावना लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि दुरुपयोग किया जाना शुरू हो चुका है. न्यायिक अनुशासन किस तरह बनाए रखा जाए, इसके लिए नई व्यवस्था बनाना कोई आसान काम नहीं होगा.