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नये सवालों के आइने में वामपंथ

३१ मार्च २०१४

भारत की संसदीय राजनीति में शामिल मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियों पर खामोशी और निष्क्रियता की ऐसी गाज कभी नहीं गिरी थी. भारतीय राजनीति में वाम दखल सिकुड़ रहा है. अगर ऐसा हुआ तो सरोकारों और संघर्षों की राजनीति का क्या होगा?

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तीसरे मोर्चे की तलाशतस्वीर: Sajjad HussainAFP/Getty Images

2009 में संसद के भीतर पहली बार वामपंथ की ऐतिहासिक गिरावट दर्ज हुई थी जब समूचे लेफ्ट फ्रंट को मात्र 24 सीटें ही मिल पाई. दूसरा बड़ा और ज्यादा बड़ा धक्का पश्चिम बंगाल में 2011 में लगा जब ममता बनर्जी ने वाम किले को ही तहसनहस कर दिया. वाम आंदोलन जमीन से उठकर किले में ही समा गया था और वहां वो जर्जर होना शुरू हुआ. नई पेचीदगियों की रोशनी में मार्क्सवाद और उसके दर्शन को परखने की कोशिश ही नहीं की गई.

पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट ने कॉरपोरेट केंद्रित औद्योगिकीकरण की नीति अपनाई. ये उसकी ‘ऐतिहासिक विकास के चरणों' की एक कट्टर मार्क्सवादी समझ थी. बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण किया गया और फिर सिंगूर और नंदीग्राम जैसी गल्तियां और हादसे हुए. वाममोर्चा जिस ऐतिहासिक भूमि सुधार आंदोलन का अगुआ रहा, उसी भूमि को और इस तरह अपने मतदाता को भी उसने दूर कर दिया. दूसरी बात वाम सरकार में भी भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और अफसरशाही हावी होने लगी थी. नागरिकों में असंतोष पनपने लगा. कैडर में अनुशासनहीनता के वाकये सामने आने लगे. जाति, धर्म, और स्थानिकता को तो वाम दलों ने कभी देखना भी गवारा नहीं किया. वाम ने जिन चीजों से किनारा किया, ममता बनर्जी और अन्य मध्यमार्गी ताकतों ने वहां अपनी जमीन बनाई और इस तरह किले तक जा पहुंचे.

वामपंथ कमजोर हो रहा था तो धीरे धीरे फासीवादी, उग्र राष्ट्रवादी और कॉरपोरेट मुनाफे की होड़ में लगी शक्तियों ने तेज़ी से पांव फैलाने शुरू किये. दिल्ली से बाहर न निकलने की मानो ‘शपथ', धूल मिट्टी, उपेक्षित, वंचित से अलगाव, ये प्रवृत्तियां आईं. वामदलों के भीतर एक किस्म का ब्राह्मणवाद भी पनपने लगा. खासकर सीपीएम में. केरल इकाई कई तरह के विवादों में आई. केरल में सत्ता पर वामपंथियों की पकड़ मजबूत नहीं रही है. वहां तो कांग्रेस की अगुवाई वाली यूडीएफ और वाममोर्चे का एलडीएफ ऐसे ही आते जाते हैं जैसे राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी. ले देकर त्रिपुरा बचा है. वहां एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री हैं और वो एक सच्चे वामपंथी नेता हैं. उन्हें आदिवासियों का राजा भी कहा जाता है.

ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल से वाममोर्चे को खदेड़ने के लिए कमोबेश वैसी ही राजनीति की थी जैसी आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में की और अब पूरे देश में कर रही है. सर्वेक्षणों और अनुमानों की मानें तो पश्चिम बंगाल में वामदलों की हालत पतली है. अगर ऐसा है तो ये वामपंथ के लिए खतरे की घंटी है. आज के समय की केंद्रीय राजनीति में ये बहुत जरूरी है कि वाम दल कम से कम एक मजबूत विपक्ष तो बनें या एक ऐसे वैकल्पिक मोर्चे के लीडर बने रहने की कोशिश करें जो संसद के भीतर अपनी आवाज बुलंद रख सके. अगर सीटें 2009 के आंकड़े से से कम रहती हैं तो ये वामदलों के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जाएगा.

अक्सर ये सवाल पूछा जाता है कि वामदल क्या करें कि लोग उनकी ओर लौटें. वामदलों को वही करना चाहिए जो उनकी विचारधारा कहती है, उन्हें समाज के कमजोर, अल्पसंख्यक, दलित, और वंचित तबकों की एक पुरअसर आवाज बनना चाहिए. वे मध्यवर्ग और युवा पीढ़ी के बीच भी लोकप्रियता हासिल करें, नेतृत्व में स्त्रियों और दलितों की भागीदारी बढ़ाएं. वाम दल आपस में न टकराएं. आज तो आलम ये है कि उत्तराखंड जैसे छोटे प्रदेश में जिसके जन्म के पीछे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के आंदोलन का इतिहास है, वहां सीपीएम, सीपीआई और सीपीआईएमएल के नेता चुनावों में एकदूसरे के सामने आ जाते हैं. एक संगठित लड़ाई का अभाव बना हुआ है. हैरानी है कि दिल्ली में बैठे इन दलों के सूरमा आखिर एक दूसरे से कन्नी क्यों काटते हैं. वाम दल अपनी सोच में कट्टर होने के बजाय उसे नये तेवरों से लैस करें.

एक बात और, वामपंथियों ने हिंदी पट्टी को तो जैसे छुआ ही नहीं. इस पट्टी के क्षेत्रीय दलों से दोस्तियां जरूर बनाई लेकिन अपनी पैठ बनाने से कतराते रहे. उसे आगे बढ़कर उन मुद्दों को उठाना चाहिए जो आज कच्चे-पक्के और नाटकीय अंदाज में आम आदमी पार्टी कर रही है. आम आदमी की तकलीफ के मुद्दे. कांग्रेस और बीजेपी जैसे दबंग दलों को चौंकाने और मतदाताओं में एक विकल्प खुला रखने के लिए अरविंद केजरीवाल की ये रणनीति गलत नहीं है.

ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी

संपादन: महेश झा