देशभक्ति या काम के लिए भक्ति
२८ जून २०१६देशभक्ति की बहस छेड़कर, सर्टिफिकेट देकर या छीन कर फौरी राजनीतिक लाभ तो पाया जा सकता है लेकिन लंबे समय में भारत के लिए यह नुकसानदेह साबित होगा. कन्हैया कुमार की देशभक्ति पर सवाल उठाने से शायद उतना फर्क नहीं पड़ता दिखता है, लेकिन रघुराम राजन या अरविंद सुब्रमण्यम की देशभक्ति पर सवाल उठाने के कई बुरे नतीजे हो सकते हैं.
पहला तो यह कि रघुराम राजन या अरविंद सुब्रमण्यम सिर्फ भारतीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री भी हैं. ऐसे लोग जिनकी राय दुनिया के प्रमुख आर्थिक स्थलों पर मायने रखती है, जिनसे बात करना, जिन्हें सुनना लोग पसंद करते हैं. अगर भारत में लांछन का स्तर इतनी नीचा रहा तो बाहर पढ़ने या काम करने गए लोग भारत में आकर काम करने से डरेंगे और देश इन प्रतिभाओं का फायदा उठाने से वंचित रह जाएगा.
दूसरी ओर राष्ट्रीय बहस में देशभक्ति को मुद्दा बनाकर यह भी संदेश दिया जा रहा है कि विदेशों में काम करने वाले लोगों को देशभक्ति का परिचय देना होगा. अगर अमेरिका में काम करने वाले किसी भारतीय की भारतभक्ति प्रमुख हो जाए तो फिर कौन उस पर विश्वास करेगा और अपने यहां जिम्मेदारी की नौकरी देगा. ऐसे में कोई नौकरी भी नहीं बदल पाएगा क्योंकि नई कंपनी को लगेगा कि कर्मचारी की निष्ठा पुरानी कंपनी के साथ है. यह बहस भारतीयों को विदेशों में रोजगार से वंचित करेगी ही, उन्हें उच्चस्तरीय अनुभव लेने से महरूम कर देगी. हमें समझना होगा कि काम के लिए और अपनी जिम्मेदारियों के लिए वफादारी जरूरी है. ऐसा करते हुए लोग देश के लिए भी वफादार हो पाएंगे.
भारत वह देश है जिसे अब तक वैश्वीकरण का लाभ मिला है. भूमंडलीकरण और राष्ट्रवाद एक सिक्के के दो पहलू नहीं हो सकते. भूमंडलीकरण का मतलब ही है एक दूसरे के अनुभवों से सीखना, विकास की राह पर आगे बढ़ना और एक की क्षमता का लाभ दूसरे को देना और उपलब्धियों का आदान प्रदान. वसुधैव कुटुम्बकम वाले ऐसे विश्व के निर्माण में अंधराष्ट्रवाद रोड़े के अलावा कुछ भी नहीं है. ब्रिटेन इस समय एक अंतरराष्ट्रीय संस्था से बाहर निकलने के फैसले के नतीजे देख रहा है. अच्छे भविष्य के लिए खुले और सहिष्णु समाज का कोई और विकल्प नहीं है. यह सहिष्णुता हर स्तर पर दिखाई जानी चाहिए और उसकी मांग भी की जानी चाहिए.
भारत को तेज विकास के लिए और अपने नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए दूसरे देशों के साथ पार्टनरशिप की जरूरत है. वह पिछले दशकों में अपने बलबूते पर सभी नागरिकों को शिक्षा, चिकित्सा और नौकरी जैसी सामान्य सुविधाएं मुहैया करा पाने में विफल रहा है. वह अपने प्रतिभाशाली नागरिकों को उनकी योग्यता की नौकरी देने में भी नाकाम रहा है. पिछड़ी अर्थव्यवस्था और संरचनाओं का अभाव इसका नंगा सबूत है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद विदेशों में रहने वाले भारतीयों को अपनी सरकार और अपने देश के साथ जोड़ने की कोशिश की है ताकि लोगों को गरीबी और पिछड़ेपन से बाहर निकाला जा सके. उनके इन प्रयासों में भारत से प्रेम करने वाले और उसका विकास चाहने वाले विदेशी भी शामिल हैं. क्या वे भविष्य में ऐसा कर पाएंगे? उनकी भारत भक्ति को कहीं उनके देशों में द्रोह तो नहीं समझ लिया जाएगा?
ऐसे समय में जब प्रगति और विकास के लिए कंपनियों से लेकर देश तक दुनिया भर में कुशल विशेषज्ञों को तलाश रहे हैं, भारत में उन्हें निम्नस्तरीय बहस में उलझाकर अपमानित करना देशहित में कतई नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी ने अब हस्तक्षेप किया है, लेकिन बहुत देर से. शुरुआती नुकसान तो हो ही चुका है. यह महत्वपूर्ण नहीं कि राजन आरबीआई में रहते हैं या नहीं, महत्वपूर्ण यह है कि उनके जैसे लोग क्या “अपने देश” के हित में बिना किसी चिंता के सोच पाएंगे.