दर-दर ठोकरें खाने को मजबूर सीरिया के बाल मजदूर
१४ जून २०१८अपने पिता के बीमार रहने की वजह से किशोर वय के शरणार्थी को काम करने के लिए भी मजबूर होना पड़ा हैं. लेबनान की राजधानी त्रिपोली में मिठाई बेचने के बाद रात करीब 11 बजे मुनीर (नाम बदला हुआ) का काम खत्म होता है और बदले में उसे प्रतिदिन 12 हजार लेबनानी पाउंड यानी महज 8 अमेरिकी डॉलर मिलते हैं. उसकी तरह सीरिया के कई बच्चे हैं जो वहां के संकट के चलते लेबनान में बाल मजदूरी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं.
यौन शोषण और हिंसा का शिकार हो रहे बच्चे
13 वर्षीय मुनीर का कहना है, "लोग मुझे सीरियाई कुत्ता बुलाते हैं. यह बेहद प्रताड़ित करने वाला हैं. कई बार मैं सड़कों पर बैठकर रोता रहता हूं." इस किशोर ने बताया कि कैसे सड़कों पर आने-जाने वाले मर्द उसके साथ गलत काम करते हैं और अपने पास बुलाते हैं. सिर झुकाए और आंसू बहाते हुए मुनीर बताता है कि उसके साथ सड़कों पर ऐसा कई बार हो चुका हैं. वह बताता है कि बाल मजदूरों में वह उम्र में सबसे बड़ा है और बाकी तो और भी छोटे हैं.
7 साल पहले के स्कूली दिनों को याद करते हुए मुनीर बताता है कि कैसे वह पढ़ाई करने जाता था और मैथ्स उसका फेवरिट सब्जेक्ट था. सीरिया के इस बाल मजदूर का सपना है कि वह बड़ा होकर मैकेनिक बने. उसे टूटी और खराब चीजों को ठीक करना अच्छा लगता है.
आबादी का एक चौथाई सीरियाई शरणार्थी
सीरियाई संकट के चलते अब तक करीब 10 लाख शरणार्थी लेबनान आ चुके हैं. यह संख्या लेबनान की कुल आबादी का एक चौथाई है. स्थानीय लोग और संगठन बताते हैं कि आबादी बढ़ने की वजह से ही अब सीरियाई बच्चों को काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा रहा है. डैनिश रिफ्यूजी काउंसिल के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में जहां सीरियाई बाल मजदूर 4 फीसदी थे, अब 7 फीसदी हो चुके हैं. काउंसिल के प्रवक्ता बेनेडिक्ट निक्सन का कहना है कि स्थिति बद से बदतर होती जा रही हैं. शरणार्थियों की कमाई पर्याप्त न होने के कारण बच्चों को काम करना पड़ रहा है.
संयुक्त राष्ट्र और सहयोगी एजेंसियों ने पिछले महीने चेतावनी दी थी कि सीरिया और शरण दे रहे देशों के बीच बढ़ती खाई की वजह से बड़े संकट का सामना करना पड़ सकता हैं. यूएन के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन ने बीते दिनों कहा था कि कर्ज की गिरफ्त में आ चुके सीरियाई परिवारों को अपने बच्चों को काम करने भेजना ही पड़ेगा क्योंकि उनके पास कोई चारा नहीं हैं.
मुनीर की मां हसना कहती हैं कि उन्हें दुख होता कि वह अपने दोनों बेटों को स्कूल के बजाए काम करने भेजती हैं. लेकिन दिक्कत यह है कि जिस गैराज में वह रहने को मजबूर हैं उसका किराया ही हर महीने करीब 2.80 लाख लेबनानी पाउंड है. ऐसा लगता है कि जितना भी करो कम ही है. यूनीसेफ के मुताबिक, इन शरणार्थियों में से तीन-चौथाई प्रतिदिन 4 डॉलर से कम में गुजारा कर रहे हैं और लेबनान में गरीबी रेखा के बीचे जीवनयापन कर रहे हैं.
वीसी/एमजे (थॉमस रॉयटर्स फाउंडेशन)