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थरुर का गरुड़ अब ज़मीन पर

२३ अप्रैल २०१०

जर्मन समाचारपत्रों ने इस बार अपने पाठकों के समक्ष भारत में क्रिकेट में राजनीति के दखल से लेकर पाकिस्तान की राजनीति में सेना के दखल तक कई विषयों को उठाया.

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दिन बदलते देर नहीं लगतीतस्वीर: UNI

भारत के विदेश राज्यमंत्री शशि थरुर को राजनीति के मंच से कुछ ही महीनों में विदा लेनी पड़ गयी, क्योंकि उन्होंने अपनी संदिग्ध प्रेमिका को एक क्रिकेट टीम के शेयर दिलवाये. बर्लिन के टागेसत्साइटुंग की इस पर टिप्पणी थीः

"वे वैश्वीकरण के समर्थकों के चहेते और सत्तारूढ़ काग्रेस पार्टी के एक शूटिंग स्टार थे, एक सफल लेखक माने जाते थे और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बनते-बनते रह गये थे... लोग उन के व्यक्तित्व में जवाहरलाल नेहरू का नया अवतार देख रहे थे... अब यही विदेश राज्यमंत्री क्रिकेट और एक महिला के प्रति अपने प्रेम के कारण लड़खड़ा गये.... फ़िलहाल तो उनका पत्ता साफ़ ही है. उनकी कमज़ोरी यह थी कि वे भारतीय राजनीति के दैनिक गोरखधंधे भ्रष्टाचार के माहिर नहीं हैं."

बेमौके की ग़रीबी

फ्रैंकफ़र्ट के फ्रांकफ़ुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग ने इस समाचार पर टिप्पणी की है कि भारत में ग़रीबी की रेखा से नीचे जीने वालों की संख्या 41 करोड़ है, न कि 31 करोड़, जैसा 2004 में अनुमान लगाया गया था. पत्र ने लिखाः

"एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में यह नयी ग़रीबी सरकार के लिए बड़े बेमौके आयी है. खाद्य सामग्रियों की क़ीमतें बेलगाम बढ़ रही हैं. आर्थिक विकास की गति जहां एक बार फिर तेज़ होने लगी हैं, वहीं ग़रीबों को 17 प्रतिशत मंहगाई से जूझना पड़ रहा है. सूखा, भीषण गर्मी और जीर्णशीर्ण आधारभूत सुविधाओं के कारण आपूर्ति में बाधाएँ क़ीमतों को आसमान पर चढ़ा रही हैं."

नक्सली सबसे बड़ा भीतरी शत्रु

साप्ताहिक समाचारपत्र दी त्साइट का मानना है कि माओवादी, यानी नक्सली भारत के सबसे बड़े भीतरी शत्रु बन बये हैं. उनकी जड़ें मज़दूरों-किसानों में नहीं, आदिवासियों के बीच हैं:

Indien Maoisten Anschlag
जगदलपुर में नक्लियों का हमलातस्वीर: AP

" तब भी पुलिस की पकड़ से बचने के लिए वे हमेशा भागते फिरते हैं. दिल्ली की एक स्वतंत्र संस्था इंस्टीट्यूट फ़ॉर कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट के अजय साहनी सीपीआई-एम की इस नीति को 'अशांति का वर्चस्व' नाम देते हैं. जहां भी वे दिखायी पड़ गये, वहां उनकी पार्टी अशांति फैलाने और ताक़त दिखाने लगती है. साहनी कहते हैं कि आदिवासी भी उनका शिकार ही हैं."

दी त्साइट

के संवाददाता ने नक्सली छापामार युद्ध वाली जगहें देखीं और वहां के आदिवासियों से बातें भी कीं:

"एक आदिवासी ने खुल कर कहाः पुलिस वाले हमें हमेशा तंग करते हैं. मेरे बचपन के दिनों से ही वे मेरे पिता को और मुझे मारते-पीटते रहे हैं. बार-बार यही कहते हैं कि हम माओवादियों के साथ हैं. उसका कहना था कि माओवादियों के साथ उसके अनुभव इतने बुरे नहीं रहे हैं, भले ही वे उसकी झोपड़ी में आते हैं, लेक्चर पिलाते हैं और खाने-पीने की चीज़ें उठा ले जाते हैं. उस आदिवासी के अनुसार, भरोसा आप किसी का भी नहीं कर सकते. कुछ तो माओवादी बन कर आते हैं, पहले खाना खाते हैं और बाद में पुलिस के रूप में आकर पिटाई करते हैं. आदिवासी दो पाटों के बीच में पिस रहे हैं."

ज़रदारी ने अपने हाथ बांधे

भारत के पड़ोसी पाकिस्तान के बारे में बर्लिन के बर्लिनर त्साइटुंग ने लिखा कि राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी ने संविधान संशोधन पर हस्ताक्षर कर न केवल पिछली दो सैनिक तानाशाहियों की विरासत को ही साफ़ कर दिया, अपने आप को भी सत्ताहीन बना दिया. अब सारी कार्यकारी सत्ता प्रधानमंत्री के हाथों में चली जायेगीः

"संविधान संशोधन के बावजूद ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान बनने के बाद के आधे समय तक राज कर चुकी सेना दुबारा सत्ता नहीं हथिया सकती. लेकिन, अब वह उस आसानी के साथ ऐसा नहीं कर पायेगी, जैसा 80 वाले दशक के समय से कई बार किया. अर्थव्यवस्था की ख़स्ताहाली और नागरिक सरकार की असहायता को देखते हुए मीडिया वाले कबसे दुबारा सैनिक राज की गुहार लगाने लगे हैं... तब भी संविधान संशोधन के बाद इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि ज़रदारी 2014 तक का अपना कार्यकाल शायद पूरा कर लेंगे."

Asif Ali Zardari
हाथ बंधेतस्वीर: pa / dpa

पाकिस्तान की संदिग्ध परमाणु सुरक्षा

ज्यूरिच के नोए त्स्यूइरिशर त्साइटुंग को लगता है कि परमाणु सामग्री आतंकवादियों के हाथों में पड़ने का सबसे अधिक ख़तरा पाकिस्तान में ही है. पत्र ने लिखाः

"आतंकवादी रावलपिंडी में यदि उच्च सुरक्षित सेना के मुख्यालय पर सनसनीखेज़ हमला बोल सकते हैं, तो देश भर में फैले रिएक्टर, परमाणु शोध प्रतिष्ठान और परमाणु अस्त्र भंडार भी उन से सुरक्षित नहीं हो सकते."

कयानी के सितारे बुलंदी पर

वॉशिगटन में इसी परमाणु सुरक्षा के लिए हुए शिखर सम्मेलन में पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व राष्ट्रपति ज़रदारी नहीं, सेनाध्यक्ष जनरल कयानी कर रहे थे. बर्लिन का टागेसश्पीगल इसे इस बात का संकेत मानता है कि कयानी ही अब पाकिस्तान की विदेशनीति तय करेंगेः

"इसे कोई छिपा हुआ सत्तापलट कहना शायद सही नहीं होगा. लगता यही है कि अमेरिका चाहता है कि कयानी ही अब आगे आयें. पहली बात तो यह कि अमेरिका की भी समझ में आ गया है कि पाकिस्तान में सेना की ही चलती है. दूसरी बात यह कि पाकिस्तान की नागरिक सरकार के प्रति अमेरिकी धीरज का बांध टूटने लगा है... कयानी की पूछ बहुत बढ़ गयी है."

संकलन अना लेमान / राम यादव

संपादन महेश झा