तमाशबीन समाज कब होगा जागरूक
१ दिसम्बर २०१४लड़कियों की दिलेरी और लड़कों की बदतमीजी का वीडियो बनाने की हिम्मत एक व्यक्ति ने जरूर दिखाई और आज उसी वीडियो की वजह से हम उन लड़कियों के हौसले की दाद दे पाने की स्थिति में हैं. मनचलों को सबक सिखाने की ये हिम्मत उस हरियाणा और उस हिंदी पट्टी की लड़कियों ने दिखाई है जहां की कई खाप पंचायते अपने उलजलूल फैसलों और हरकतों के लिए विवादास्पद रही हैं. जहां मर्दवाद हावी है और औरतों को इज्जत के नाम पर कई किस्म के प्रतिबंधों, और सामाजिक-नैतिक अवरोधों यहां तक कि मौत का भी सामना करना पड़ता है. खबरों से ही पता चल रहा है कि कैसे लड़कियों के परिवार पर रिपोर्ट न करने का दबाव भी बनाया गया था.
लेकिन ध्यान रहे कि ऐसे विकट और मानसिक रूप से तंग समाज से ही निकलकर बेटियों ने खेल की दुनिया और अन्य क्षेत्रों में देश का नाम रोशन किया है. ऐसे परिवार भी हैं जो अपनी बेटियों को बेटों के बराबर दर्जा देकर उनकी परवरिश कर रहे हैं. आखिर कल्पना चावला इसी हरियाणा के करनाल जिले की एक बेटी थी.
बहनों की बहादुरी की जितनी चर्चा करें उतना ही शर्म से भी सिर झुक जाता है जब पता चलता है कि उनकी मदद को कोई भी आगे नहीं आया. ऐसा ये समाज हो गया है. सामूहिकता और सहायता की भावना से विरक्त, रूखा और डरा हुआ. इसी से समाज में लफंगई फैलती है और ये मनचले और शोहदे खुलेआम बेहिचक हिंसा पर आमादा रहते हैं. लोग अपनी व्यस्तताओं और विवशताओं और अनदेखियों और अपने डरों में रहने को इतने अभ्यस्त या कहें इतने शायद अभिशप्त हो गए हैं कि वे मदद के नाम पर बुत बन जाते हैं.
हरियाणा सरकार ने राजकीय परिवहन की बसों में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने का आदेश दिया है. सवाल ये है कि क्या हर जगह हर समय हर अवसर पर ये मुमकिन है कि पुलिस मौजूद होगी. या खामी सुरक्षा मुहैया कराने के बुनियादी ढांचे में ही है जिसकी वजह से अपराधियों के दिलों में खौफ आ नहीं पाता है. कुछ ऐसा सिस्टम तो बनना ही चाहिए कि कोई भी ऐसी अनैतिक, अमर्यादित या गैरकानूनी हरकत करने की हिम्मत ही न कर पाए. कानून का डर होता तो निर्भया-कांड आखिरी होता.
महिलाओं की हिफाजत के कानून के दायरे को बढ़ाकर पीड़ित की मदद का प्रावधान कानूनन जरूरी कर दिया जाए., ये बहस भी उठी है. रोहतक मामले में तो सवारियों की निष्क्रियता उतना ही डराती है जितना उन मनचलों की हरकत. क्या इस बारे में कानून बनेगा तभी लोग जरा हरकत में आएंगे, अन्यथा नहीं? क्या किसी कानून के जोर पर ऐसा हो पाना संभव है? आज हम जिस तरह के हालात देख रहे हैं और कानून की खुलेआम अवहेलना के नजारे भी दिख ही जाते हैं, अपराधियों को कानून की कुछ लचीली गलियों से बचते निकलते भी देखते रहे हैं, तो ऐसे में लोग कानून को मानने के लिए बाध्य हो जाएंगे, कहना मुश्किल है. वे अभी नैतिक हिम्मत दिखाने से बचते हैं फिर कानून से भी बचने का रास्ता ढूंढ लेंगे. झंझट में कौन फंसे की मानसिकता तो इस समाज में आज से नहीं कब से है.
लिहाजा कानून और कर्तव्य तो अपनी जगह हैं, समाज में ऐसा माहौल बनाना ज्यादा जरूरी है कि कोई अपराध करने से डरे और कोई मुसीबत में घिरे व्यक्ति का तमाशा ही न देखता रहे. जाहिर है ऐसा माहौल सिर्फ कानून से या डर से नहीं बनेगा, सदिच्छा और सद्भावना से भी बनेगा जिसका पहला पाठ हम घर से सीखते हैं. भले ही ये सैद्धांतिक सी बात लगे लेकिन इसे व्यवहारिकता में भी ढालने की मिसालें हमारे सामने रही हैं. हम जागरूक तभी कहलाएंगे, वरना तो तमाशबीन ही बने रह जाएंगे.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी