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डायरी, कैलेंडर का बाजार चौपट

९ जनवरी २०१४

बर्थडे, शादी की सालगिरह, मीटिंग समेत सब कुछ जेब में. यानी चार छह इंच के इलेक्ट्रॉनिक बक्से में, और तो और शाम को घर वापसी पर क्या क्या ले जाना है उसकी लिस्ट प्लस अलर्ट इसी बक्से के भरोसे. इस बक्से का नाम मोबाइल फोन है.

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तस्वीर: DW/S. Waheed

इस चार छह इंची इलेक्ट्रॉनिक बक्से ने रोजमर्रा की जिंदगी में जितनी घुसपैठ बनाई है वह तो बनाई ही है डायरी, कैलेंडर, अलार्म घड़ी, कलाई वॉच, प्लानर, डायरेक्टरी, कैमरा, ट्रांजिस्टर और पेन की बिक्री 70 फीसदी घटा दी है. सबसे ज्यादा मार पड़ी है डायरी और कैमरे के बाजार पर. कैलेंडर का बाजार अभी बाकी है. पहले सिर्फ बड़ी बड़ी करीब 10 लाख डायरियां नई सड़क से आती थीं. लेकिन पिछले पांच वर्षों में इनकी संख्या घटते घटते सवा दो लाख रह गई है. इनमें भी कंपनियों की एक्जक्यूटिव डायरियां ज्यादा हैं. दिल्ली से डायरियों का कारोबार करने वाले रामजी एंड संस के मालिक आशुतोष कहते हैं कि नव वर्ष के तोहफे की लिस्ट में डायरी का नंबर अब बहुत नीचे पहुंच गया है.

सब कुछ मोबाइल भरोसे

नए वर्ष पर आने वाले उपहार में डायरी और कैलेंडर की जगह पेन ड्राइव, ब्लू टूथ डिस्क, मोबाइल फोन, उसके महंगे केस, टैबलेट, एयर फोन, आईपॉड आदि ने ले ली है. लेकिन सरकारी डायरी का महत्व अभी भी बाकी है क्योंकि इसमें सभी सरकारी फोन और फैक्स नंबर छपे होते हैं. उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार ने इसे आउटसोर्स कर दिया था लेकिन अखिलेश यादव की नई सरकार ने इसे फिर से छपवाना शुरू कर दिया. नेताओं के हाथ की शोभा होती है यह डायरी. करीब 25000 छपती है और इसके लिए लाइन लगी रहती है. हालांकि अधिकांश विभागों की वेबसाइट पर सभी जरूरी जानकारियां मौजूद हैं.

कैमरे का बाजार भी मोबाइल फोन ने चौपट कर दिया. अब तो 1500-2000 रुपये वाले मोबाइल फोन में भी पांच मेगापिक्सल का कैमरा मौजूद है. वैसे तो 20-24 मेगापिक्सल तक के कैमरे वाले मोबाइल फोन बाजार में मौजूद हैं. दिल्ली के जनपथ बाजार में अब से 10 साल पहले दर्जन भर दुकानें विदेशी कैमरों की थीं. अब एक भी नहीं बची है. लखनऊ के बिन्नी अरोड़ा हर महीने गोरखपुर के रास्ते नेपाल के सोनौली बॉर्डर जाकर कैमरे लाते थे और यहां होल सेल सप्लाई करते थे. अब मोबाइल का व्यापार कर रहे हैं. कहते हैं कि यही समय की मांग है.

कैलेंडर का कैसा इस्तेमाल

कैलेंडर का इस्तेमाल भी अब ज्यादातर दूध वाले के आने न आने और काम वाली की दिहाड़ी दर्ज करने के काम आता है. बड़े बड़े अक्षरों में छपे तारीखों वाले कैलेंडर की ही मांग बची है. कलाई घड़ी फैशन रह गई, कभी जरूरत हुआ करती थी. मोबाइल ने दुनिया ही बदल दी. टाटा के लखनऊ स्थित सीनियर सेल्स मैनेजर विक्रम कहते हैं कि शादी ब्याह में महंगी घड़ी का रिवाज बाकी रह गया है. अलार्म घड़ी ने तो जैसे बाकायदा रुखसती ले ली. हर मोबाइल फोन में अलार्म की सुविधा है. अलार्म ही क्या अलर्ट भी है जो बॉस और बीवी से ज्यादा चाबुकदस्ती से काम की याद दिलाता है.

दफ्तरों से प्लानर भी गायब हो गया है. एक आईएएस अफसर के मुताबिक सब कुछ कंप्यूटर ने हड़प लिया. बताते हैं कि नव वर्ष पर अब अगर दो चार डायरियां आ भी जाती हैं तो वह अपने ड्राइवर को दे देते हैं. लेकिन डायरी लिखने का दस्तूर अब भी कायम है. बीएससी की छात्रा कुलसूम को हर साल डायरी चाहिए क्योंकि वह लिखती है. उसे साल में एक नहीं दो तीन डायरियां भी कम पड़ जाती हैं. उसमें उसकी भावनाएं, दुख दर्द और तनहाइयां कैद होती हैं. उसके सपने और उसकी अपनी जिंदगी के कुछ खास लम्हे.

लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफसर साबिरा हबीब के मुताबिक चाहे जितनी आधुनिकता आ जाए तकनीक का जादू सिर चढ़ कर बोले लेकिन परंपराएं कभी नहीं मरतीं. डायरी हमेशा जिंदा रहेगी. न जाने कितनी डायरियों ने साहित्यिक सृजन का रास्ता खोला है, चाहें वह गालिब की हो या अमृता प्रीतम की या हाल ही में जेल गए एक पत्रकार की डायरी जो बाद में एक मशहूर किताब बन गई.

रिपोर्टः सुहेल वहीद, लखनऊ

संपादनः ए जमाल

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