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डंके की चोट पर महिलाओं का शोषण

१३ जनवरी २०१३

शहर के छोटे परिवारों में मियां बीवी दफ्तर में और बच्चे अपनी दुनिया में व्यस्त रहते हैं ऐसे में घर के काम के लिए नौकरों का ही सहारा है. घर का काम भी नौकरी है लेकिन अक्सर पढ़े लिखे लोग भी इन कामगारों को गुलाम समझते हैं.

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तस्वीर: NOAH SEELAM/AFP/Getty Images

आए दिन ऐसे मामले आते हैं जहां नौकरानियों को मारा पीटा जाता है या उनका यौन शोषण किया जाता है. कई बार पता चलता है कि उन्हें कई कई दिनों तक कुछ खाने को नहीं दिया गया, तो कभी उन्हें जानवरों की तरह कमरे में बांध कर छोड़ दिया जाता है. इन मामलों में भारत का एक ऐसा रूप देखने को मिलता है जो दिल दहला देता है. जानकार मानते हैं कि पिछले कुछ सालों में मध्य वर्ग की बदलते छवि इसके लिए जिम्मेदार है.

'बिकाऊ माल हैं लड़कियां'

दिल्ली में बच्चों के लिए काम कर रही संस्था शक्ति वाहिनी के अध्यक्ष रविकांत का कहना है कि 1990 के बाद से जिस तरह से भारत ने आर्थिक तरक्की की है उसने हालात और बिगाड़ दिए हैं, "हम देख रहे हैं कि भारत का मध्य वर्ग लगातार तरक्की कर रह रहा. उनके पास अब बहुत पैसा आ गया है और इसीलिए उन्हें लगने लगा है कि वे जो चाहें खरीद सकते हैं. उन्हें यह भी लगता है कि वे अपने नौकरों के साथ जैसे चाहें वैसे पेश आ सकते हैं."

रवि कांत का कहना है कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे महानगरों में कामकाजी महिलाओं की संख्या काफी बढ़ी है और इसीलिए घर के काम में हाथ बंटाने के लिए सस्ती बाइयों की मांग भी बढ़ी है, "इन लड़कियों और औरतों को बिकाऊ माल समझ लिया जाता है, लोगों को लगता है कि वे इन्हें खरीद बेच सकते हैं, इनके साथ कुछ भी कर सकते हैं. वे चाहें तो इन्हें गुलाम बना लें, चाहें तो जबरन शादी करा दें या फिर देह व्यापार में उतरने को मजबूर कर दें."

सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं

भारत में घर में काम करवाने के नाम पर कितनी लड़कियों को गुलाम बना कर रखा गया है इसके कोई आंकडें उपलब्ध नहीं हैं. सरकार का कहना है कि 2011 में करीब सवा लाख बच्चों को बचाया गया. इन बच्चों से जबरन मजदूरी करायी जा रही थी. 2010 की तुलना में यह 27 प्रतिशत की वृद्धि है. महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठनों का कहना है कि यह संख्या कई गुना ज्यादा होगी अगर 18 साल से अधिक उम्र वाली लड़कियों को भी इनमें गिना जाएगा.

न्यूयॉर्क स्थित मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच की निशा वारिया बताती हैं, "भारत में लड़कियों को कभी भी पूरी तरह शिक्षा का अधिकार मिल ही नहीं सका. नतीजतन उनके पास रोजगार के बेहतर विकल्प नहीं हैं." वारिया का कहना है कि इन कारणों की वजह से भी उन्हें ऐसे रोजगार में उतरना पड़ता है. इनमें न तो उन्हें अच्छे पैसे मिल पाते हैं और न ही उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी होती है.

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तस्वीर: picture-alliance/Godong

एजेंसी का माफिया

कई सालों से भारत में एक माफिया का जाल बिछा हुआ है. पहले तो लड़कियों का अपहरण कर उन्हें मध्य पूर्व और अरब देशों में बेच दिया जाता था जहां उनसे नौकरों का काम लिया जाता था. अब हालात ऐसे हो गए हैं कि छोटे शहरों या गरीब गांवों से लड़कियों को लाकर उन्हें बड़े शहरों में ही नौकरों के रूप में बेच दिया जाता है. कई बार वे घरों में बाइयों का काम करती हैं तो कई बार फैक्टरियों में मजदूरी.

मानवाधिकार संगठन एक्शन एड्स के अनुसार राजधानी दिल्ली में ही 2,300 ऐसी एजेंसियां चल रही हैं जो लोगों को नौकर उपलब्ध कराती हैं. इनमें से कुल 20 प्रतिशत भी पंजीकृत नहीं हैं और न ही ये सरकार की न्यूनतम वेतन की सीमा पर ध्यान देती हैं. निशा वारिया बताती हैं, "कई बार तो कोई दूर के रिश्तेदार या पड़ोसी ही झूठे वादे और पैसे का लालच देकर लड़कियों को यहां ले आते हैं."

माफिया का काम भी डंके की चोट पर चलता है. मालिकों से कहा जाता है कि वे नौकरों को नहीं, बल्कि एजेंसी को पैसे दें. ये एजेंसियां सारा पैसा अपने ही पास रखती हैं. लड़कियों और उनके परिवार वालों से कहा जाता है कि पैसा कॉन्ट्रेक्ट खत्म होने के बाद ही मिलेगा. ऐसे में कई बार लड़कियां शर्म के मारे कभी अपने घर लौटती ही नहीं हैं. 

कैसे हो इंसाफ

ऐसा नहीं कि सरकार को इसकी भनक नहीं है. 2011 में इस गैरकानूनी व्यापार को रोकने के लिए देश भर में पुलिस चौकियों में खास विभाग बनाए गए. अब तक 225 ऐसी चौकियां बन चुकी हैं. 2013 में 110 और चौकियों बननी है. लेकिन इतने बड़े देश के लिए यह कोई बड़ी संख्या नहीं है. वैसे भी इन चौकियों का मुख्य काम आंकड़े जमा करना और महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज करना ही है.

एक बड़ी समस्या यह भी है कि इस मामले में अधिकतर काम राज्यों के स्तर पर हो रहा है. देश में इन अपराधों के खिलाफ कोई ठोस कानून नहीं है. शक्ति वाहिनी के रविकांत कहते हैं, "आज हम जिस समस्या से जूझ रहे हैं वह इतने सालों तक हाथ पर हाथ धरे रहने का नतीजा है. हमने इसे कभी भी प्राथमिकता दी ही नहीं."

रिपोर्ट: प्रिया एसेलबॉर्न/ईशा भाटिया

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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