ट्रैफिक लाइट के सौ साल
5 अगस्त 1914 को अमेरिकी शहर क्लीवलैंड में पहली ट्रैफिक लाइट लगाई गई. अब इसके बगैर कोई भी सड़क अधूरी है.
आसान सी बात
लाल बत्ती पर रुको और हरी बत्ती पर चलो. कई दशकों से लाल, पीली और हरी बत्तियां हमारे शहरों के यातायात को संभालती हैं. और सबको रंगों के इस कोड की जानकारी है.
लाल पर भी चल दिए
हर कोई बत्ती पर ध्यान नहीं देता. जर्मन शहर ब्राउनश्वाइग में भी कई लोग होते हैं जो लाल बत्ती पर भी चलने लगते हैं. भारत में तो ऐसा अकसर होता है.
भीड़ पर काबू
बर्लिन का पोट्सडामर प्लात्स 1920 के दशक में सबसे ज्यादा ट्रैफिक वाला शहर था. उसी वक्त समझ में आ गया कि यातायात को किसी तरह आयोजित करना होगा.
करीब एक सदी बाद
आजकल पोट्सडामर प्लात्स कुछ ऐसा दिखता है. सड़क पर लोग और गाड़ियों के लिए अलग जगह बनाई गई है. घंटाघर को भी बदल दिया गया है और इसमें ट्रैफिक लाइट लगाया गया है.
जाने दो यार
भारत में भी कई शहर हैं जहां ट्रैफिक पुलिस यातायात संभालती है. यह तस्वीर ब्रिटेन की है.
मॉडर्न ट्रैफिक
अफ्रीका की बात ही कुछ और है. डीआर कांगो की राजधानी किनशासा में ट्रैफिक लाइट को एक पुलिस वाले जैसा बनाया गया है. शायद भविष्य में रोबोट हमारी सड़कों पर नजर रखें.
ट्रैफिक लाइट न बदलो!
पूर्वी जर्मनी में इस तरह की तस्वीर वाली ट्रैफिक लाइट पसंद की जाती थी. लेकिन एकीकरण के बाद पश्चिम जर्मनी में इसे पसंद नहीं करते. पूर्वी जर्मनी वाले अपने ट्रैफिक लाइट वाले जेंटलमैन से अब भी काम चलाते हैं.
जीवन में लाल बत्ती
ट्रैफिक लाइट सिर्फ ट्रैफिक के लिए नहीं बल्कि खाने पीने में चीनी और चर्बी के लिए भी इस्तेमाल होता है. इस कार्ड से पता चलता है कि अगर पैक खाना खरीदना हो तो कितनी चीनी बहुत ज्यादा और कितना स्वास्थ्य को नुकसान नहीं पहुंचाने वाला है.
हरा और लाल
ट्रैफिक लाइट लोगों के दिमाग में इतना घुस गई है कि जर्मनी की सरकार में भी इसका इस्तेमाल होता है. लाल सोशल डेमोक्रेट्स का रंग है, हरा ग्रीन पार्टी का और पीला लिबरल पार्टी एफडीपी के लिए है. चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू का रंग काला है.