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जेएनयू जैसे कांड से विकास को लगेगा धक्का

१९ फ़रवरी २०१६

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पिछले दिनों हुई घटनाओं की विश्व भर में चर्चा हुई है. कुलदीप कुमार का कहना है कि जेएनयू प्रकरण ने समूचे देश की लोकतांत्रिक चेतना को झकझोरा है और इससे देश की छवि पर आंच आई है.

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तस्वीर: Reuters/A. Mukherjee

इसके माध्यम से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और हिन्दुत्ववादी शक्तियां यह संदेश भेज रही हैं कि जो भी उनसे और राष्ट्रीयता की उनकी समझ से असहमत होगा, उसे राष्ट्रदोही बताकर उसका उत्पीड़न किया जाएगा और उसे पुलिस, प्रशासन या न्यायपालिका, किसी का भी संरक्षण प्राप्त नहीं होगा. जेएनयू का प्रयोग यदि सफल हो गया, तो उसे अन्य स्थानों पर भी आजमाया जाएगा और एक अघोषित आपातकाल लागू हो जाएगा. यही कारण है कि इस एक घटना ने लगभग समूचे विपक्ष को एकजुट कर दिया है, देश-विदेश के विश्वविद्यालयों के शिक्षक और छात्र जेएनयू के समर्थन में आगे आ रहे हैं और सत्ता को चुनौती दे रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट भी अपने स्तर पर सक्रिय हो गया है और अब सभी लोगों की निगाहें उसी पर लगी हैं.

विचारों के मुक्त प्रवाह, सभी मुद्दों पर बेबाक बहस-मुबाहिसे, ऊंचे स्तर के बौद्धिक विमर्श और शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक छात्र राजनीति के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त जेएनयू 1960 के दशक के अंत में अपनी स्थापना के समय से ही संघ परिवार की आंख की किरकिरी रहा है क्योंकि उसके पाठ्यक्रमों में संघ के इकहरे हिन्दू राष्ट्रवाद का कोई स्थान नहीं है और उसकी नींव लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की नेहरूवादी अवधारणाओं पर टिकी है. ऐसा नहीं कि वहां के शिक्षकों और छात्रों के बीच सभी किस्म की विचारधाराओं और राजनीतिक रुझानों के लोग न रहे हों, वे आज भी हैं, लेकिन वहां अमूमन वामपंथी विचारों और छात्र संगठनों का पलड़ा भारी रहा है.

संघ के दूसरे सरसंघचालक यानि सर्वोच्च नेता माधव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘विचार नवनीत' में देश के लिए तीन आंतरिक संकट गिनाए हैं, ईसाई, मुसलमान और कम्युनिस्ट. संघ हिन्दू राष्ट्र के सिद्धांत में आस्था रखता है और धर्मनिरपेक्षता को नकारता है. उसकी राय में हिन्दू और भारतीय पर्यायवाची शब्द हैं. देश की आजादी की लड़ाई से अपने को अलग रखकर केवल हिंदुओं को संगठित करने के काम में लगे रहने वाला संघ खुद को सबसे अधिक देशभक्त और राष्ट्रवादी भी बताता है. वह ऐसा 1925 में अपनी स्थापना के समय से ही कर रहा है लेकिन मई 2014 में पहली बार उसके साथ नाभि-नाल का संबंध रखने वाली बीजेपी अपने बलबूते पर चुनाव जीतकर केंद्र में सत्ता में आई और उसके पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने. उसके लिए यही सबसे अच्छा समय है जब वह अपने एजेंडे को अमल में ला सकता है.

वामपंथियों, मुसलमानों और ईसाइयों की देशभक्ति पर वह शुरू से ही संदेह करता रहा है. 9 फरवरी को जेएनयू में कुछ चंद छात्रों द्वारा पाकिस्तान के समर्थन और भारत की एकता के विरोध में लगाए गए नारों को बहाना बना कर छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को राजद्रोह जैसे संगीन जुर्म में गिरफ्तार किया गया, इमरजेंसी की याद दिलाते हुए भारी संख्या में पुलिस ने छात्रावासों में घुस कर तलाशी ली और आज भी वह विश्वविद्यालय परिसर में मौजूद है. कन्हैया का एक नकली वीडियो तैयार किया गया, किसने किया यह तो पता नहीं लेकिन उसे कई टीवी चैनलों ने लगातार दिखाया, जिसमें वह देश-विरोधी नारे लगा रहा है. अब इस वीडियो का नकली होना सिद्ध हो गया है.

हकीकत यह है कि कन्हैया कुमार ने एक भी आपत्तिजनक बात न कही और की. लेकिन इस प्रकरण के आधार पर पूरे जेएनयू को देशद्रोहियों का अड्डा बताकर ‘शट डाउन जेएनयू' (जेएनयू बंद करो) का अभियान चलाया जा रहा है जिसे बीजेपी के नेता खुलकर समर्थन दे रहे हैं. जेएनयू को बहाना बना कर वैसा ही राष्ट्रवादी उन्माद पैदा किया जा रहा है जैसा कुछ समय पहले बीफ के मुद्दे पर किया गया था. पटियाला हाउस अदालत परिसर में सोमवार को जिन वकीलों ने जेएनयू के शिक्षकों और छात्रों की निर्मम पिटाई की और एक बीजेपी विधायक ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक मुस्लिम सदस्य पर शारीरिक हमला किया, उन्हीं वकीलों ने बुधवार को फिर अदालत परिसर में हिंसा का खुला तांडव किया और न केवल कन्हैया की पिटाई की बल्कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा भेजी गई वरिष्ठ वकीलों की टीम पर भी प्रहार किया. पत्रकारों को भी नहीं बख्शा गया. लेकिन पुलिस मूक दर्शक बनी रही.

अभी भी देर नहीं हुई है. सरकार को समझना होगा कि इस सबसे भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को बहुत धक्का लगता है, देश में अफरा-तफरी का माहौल बनता है जिसके कारण आर्थिक विकास की गति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. भारत एक विशाल देश है जिसमें अनेक धर्मों, संस्कृतियों, विचारधाराओं और जीवन पद्धतियों वाले लोग रहते हैं. केंद्र में किसी पार्टी का शासन है तो राज्यों में किसी और पार्टी का. ऐसे देश में लोकतंत्र को समाप्त करना इतना सरल नहीं है. यदि युवाओं को रोजगार देने और देश के आर्थिक विकास की गति को तेज करने के अपने चुनावी वादे भूल कर नरेंद्र मोदी सरकार लोगों को बांटने और आपस में लड़ाने के मुद्दों को हवा देगी, तो उनकी आंच में उसके ही जलने का खतरा है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार