जान बूझ कर बखेड़े में पड़े बर्लुस्कोनी
३ मई २०१४बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ. यह कहावत सिल्वियो बर्लुस्कोनी पर सही बैठती है. जहां भी उनकी बात उठती है, तो लोगों को उपलब्धियां याद करने में तो काफी वक्त लगता है, लेकिन बुंगा बुंगा पार्टी और भ्रष्टाचार के मामले फौरन याद आ जाते हैं. हाल ही में उन्हें कर चोरी के मामले में सजा सुनाई गयी. सजा के तौर पर बर्लुस्कोनी को कैद तो नहीं हुई, पर उन्हें वृद्धाश्रम में बुजुर्गों की सेवा करने को कहा गया.
77 साल के बर्लुस्कोनी ने उस वक्त कहा कि उन्हें जो भी काम करने को दिया जाएगा वह पूरी ईमानदारी से साथ उसे करेंगे. लेकिन काम करना तो दूर, पहले दिन बर्लुस्कोनी का कोई अता पता ही नहीं था. वृद्धाश्रम के निदेशक ने पहले बताया कि "वे आज नहीं आएंगे", फिर कहा कि शायद वे शुक्रवार को आएं और बाद में उन्हें यह कहना पड़ा कि हो सकता है कि अब वे अगले हफ्ते ही आएं.
दबंग बर्लुस्कोनी
जाहिर है बुजर्गों की सेवा में तो बर्लुस्कोनी का मन नहीं लगेगा. लेकिन राजनीति से उनका मन हट ही नहीं रहा है. अदालत ने उनके चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी है. पर इसके बावजूद यूरोपीय संसद के चुनावों के प्रचार के लिए उन्होंने भाषण दिया. क्योंकि भाषण पर पाबंदी नहीं लगी है. और इस भाषण में ऐसा बयान दे डाला कि पूरी मीडिया का ध्यान बर्लुस्कोनी पर ही टिक गया.
पहले तो उन्होंने ईयू के अध्यक्ष पद के लिए जर्मनी के उम्मीद्वार मार्टिन शुल्त्स पर वार किया और उसके बाद पूरे जर्मनी पर. उन्होंने पहले एक बार यूरोपीय संसद के मौजूदा अध्यक्ष शुल्त्स के बारे में कहा था कि यातना शिविर पर अगर कोई फिल्म बने तो शुल्त्स उसमें जेलर के रोल के लिए सही उम्मीदवार होंगे. बाद में उन्होंने कहा, "मैं उन्हें ठेस नहीं पहुंचाना चाहता था पर, भगवान के लिए, जर्मन लोगों ने तो कभी माना ही नहीं कि यातना शिविर थे."
बर्लुस्कोनी के इस बयान पर जर्मनी में लोगों को गुस्सा तो आना ही था, लेकिन चांसलर अंगेला मैर्केल ने आनन फानन में जवाब देना सही नहीं समझा. फिर बर्लिन में हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मैर्केल के प्रवक्ता ने कहा, "यहां जो बात कही गयी है, वह इतनी बेहूदा है कि सरकार उस पर कोई टिप्पणी नहीं करेगी."
मामले की राजनीति
राजनीति शास्त्री रोमान मारून इसके पीछे की राजनीति को कुछ इस तरह समझाते हैं. दरअसल बर्लुस्कोनी की फोर्जा इटालिया पार्टी और मैर्केल की सीडीयू पार्टी, यूरोपीय संसद में यूरोपियन पीपल्स पार्टी (ईपीपी) के सदस्य हैं. 25 मई को होने वाले यूरोपीय संसद के चुनावों के लिए फोर्जा इटालिया का नारा है "पिउ इटालिया, मेनो गर्मानिया" यानि ज्यादा इटली और कम जर्मनी.
बर्लिन में इटली के एक अखबार में काम करने वाली पत्रकार आंद्रेआ तारकिनी का कहना है कि बर्लुस्कोनी अपने विवादास्पद बयानों से इस नारे को बुलंद कर रहे हैं. उनका मानना है कि बर्लुस्कोनी की पार्टी को अपने साथ जोड़ना ही ईपीपी की सबसे बड़ी भूल थी. मारून भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं, "ईपीपी को तो दस साल पहले ही फोर्जा इटालिया और बर्लुस्कोनी से छुटकारा पा लेना चाहिए था." यूरोपीय संसद में अपनी जगह मजबूत बनाने के लिए ईपीपी ने इटली की इस पार्टी को अपने साथ जोड़ लिया था.
मारून का कहना है कि इस तरह की बयानबाजी से बर्लुस्कोनी इटली के लोगों के बीच अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, "इटली में आप जर्मनी के खिलाफ बात कर के लोगों का दिल जीत सकते हैं. बात इतनी सी है कि लफ्फाज राजनीतिज्ञ यूरोप की बिगड़ती स्थिति के लिए लगातार बर्लिन को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. हो सकता है इसमें थोड़ी बहुत सच्चाई हो, लेकिन इस तरह से इल्जाम लगाना ठीक नहीं है."
तरकिनी कहती हैं, "इटली के लोगों को आदात हो गयी है कि देश में कुछ भी गलत हो तो उसके लिए जर्मनी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाए. हो सकता है कि अब ऐसा भी वक्त आ जाए कि इटली में माफिया की मार धाड़ के लिए भी जर्मनी को ही कुसूर दिया जाए." वहीं मारून कहते हैं कि लोगों के दिलों में ऐसे कोई भाव नहीं हैं, लेकिन नेता उन्हें उकसाने में लगे हैं. कम से कम बर्लुस्कोनी तो यह काम करना जानते ही हैं और सुर्खियों में बने रहना भी.
रिपोर्ट: मार्कुस लुटिके/ईशा भाटिया
संपादन: महेश झा