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जलवायु लक्ष्यों पर कितनी साफ है यूरोप की नीयत

४ अक्टूबर २०१७

अमेरिका की बेरुखी के बाद दुनिया जलवायु समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए यूरोप की ओर देख रही है. यूरोप भी इस विचार की खुलकर पैरवी करता रहा है लेकिन अब भी यहां जीवाश्म ईंधन पर अरबों यूरो की सब्सिडी दी जा रही है.

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Kühltürme Braunkohlekraftwerk Jänschwalde
तस्वीर: picture-alliance/R4200

अमेरिका और यूरोप के मुकाबले से दुनिया वाकिफ है. जब अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन से जुड़े पेरिस समझौते से बाहर निकलने की घोषणा की तो यूरोपीय नेताओं ने बिना वक्त गंवाये जलवायु परिवर्तन और उत्सर्जन स्तर में कटौती से जु़ड़े लक्ष्यों पर अपनी प्रतिबद्धता जता दी. लेकिन इन प्रतिबद्धताओं के प्रति यूरोपीय देशो की गंभीरता व्यावहारिक रूप से कम नजर आती है. ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (ओडीआई) और क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (सीएएन) की एक रिपोर्ट मुताबिक यूरोपीय संघ अब भी यूरोप और यूरोप के बाहर जीवाश्म ईंधनों पर आधारित परियोजनाओं को वित्तीय मदद दे रहा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2014 से 2016 के दौरान ईयू और यूरोप के सरकारी बैंकों ने गैस और तेल उत्पादन पर औसतन 3 अरब यूरो और 3.5 अरब यूरो की सालाना सब्सिडी दी है. रिपोर्ट ने साल 2020 तक जीवाश्म ईंधन पर दी जाने वाली सब्सिडी को पूरी तरह से समाप्त करने पर भी बल दिया है.

रिपोर्ट के तथ्य

ओडीआई और सीएएन के मुताबकि ईयू बजट में तकरीबन 2 अरब यूरो का आवंटन साल 2014 से 2020 के दौरान गैस क्षेत्र में बुनियादी ढांचा विकसित करने के लिए किया गया. यूरोपीय इनवेस्टमेंट बैंक (ईआईबी) और यूरोपियन बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन ऐंड डेवलपमेंट (ईबीआरडी) ने साल 2014 से साल 2016 के दौरान 8 अरब यूरो से भी अधिक का निवेश जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं में किया. वहीं ईआईबी की अन्य सहयोगी इकाई यूरोपियन फंड फॉर स्ट्रेटिजिक इनवेस्टमेंट ने गैस क्षेत्र में बुनियादी ढांचे को तैयार करने के लिए साल 2015 और 2016 के दौरान लगभग 1 अरब यूरो का निवेश किया था. सीएएन के फाइनेंस और सब्सिडी पॉलिसी कॉर्डिनेटर मार्कस ट्रिलिंग के मुताबिक यह निवेश सौदे, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी प्रतिबद्धताओं से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते और इसे जल्द से जल्द रोका जाना चाहिए. उन्होंने कहा, "ईयू को पारंपरिक तौर-तरीके से हटते हुए नया रास्ता तैयार करना होगा जिसमें जीवाश्म ईंधन पर दी जाने सब्सिडी के बारे में सोचा भी ना जाए."

अल्पावधि योजना

ईआईबी ने साल 2014 से 2016 के दौरान यूरोपियन संघ के 12 देशों में कम से कम 1 कोयला परियोजना, दो तेल परियोजनायें और 27 गैस परियोजनायें को वित्त मुहैया कराया है. ईयू से बाहर बैंक ने मंगोलिया और यूक्रेन में छह जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को भी सहयोग दिया है. वहीं ईबीआरडी ने ईयू, मध्यएशिया, सेंट्रल एशिया के क्षेत्र में कोयला, तेल और गैस परियोजनाओं पर तकरीबन 2 अरब यूरो को निवेश किया है. इन वित्तीय संस्थानों का तर्क है कि जीवाश्म ईंधन क्षेत्र में इस तरह का निवेश विकासशील देशों की आर्थिक प्रगति के लिहाज से अहम है. लेकिन ट्रिलिंग का तर्क है कि जलवायु परिवर्तन के खतरे इन लाभों से कहीं अधिक है. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा कि ये निवेश बेशक ही इन देशों में नौकिरयां पैदा कर दें और ऊर्जा की मांग को पूरा कर दे लेकिन दीर्घावधि में इसके प्रभावों से बचा नहीं जा सकेगा. उन्होंन कहा साल 2050 तक हमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को शून्य तक लाने के लिए दीर्घावधि योजना पर गौर करना होगा. रिपोर्ट में आलोचनात्मक स्वर में कहा गया है कि यूरोपीय संस्थाओं द्वारा दी जाने सब्सिडी न केवल दुनिया के लिये खराब उदाहरण स्थापित कर रही है बल्कि जीवाश्म ईंधन पर किया जाने वाला बुनियादी निवेश कार्बन की निर्भरता में इजाफा कर रहा है.

USA Kohlekraftwerk in Arizona
तस्वीर: Imago/All Canada Photos

जर्मनी का पक्ष

इस बीच ईयू के 11 सदस्य देशों ने जीवाश्म ईंधन पर निर्भर इंडस्ट्री में तकरीबन 20 अरब यूरो का निवेश किया है. जर्मनी, ब्रिटेन और इटली ने अन्य देशों की तुलना में ट्रांसपोर्ट सेक्टर में जीवाश्म ईंधन पर सबसे अधिक सब्सिडी दी है. विशेष रूप से डीजल को यूरोपीय सहयोग मिलता रहा है, इसमें जर्मनी की 40 फीसदी हिस्सेदारी को भी नहीं नकारा जा सकता है. विशेषज्ञों के मुताबिक पिछले कुछ दशकों में सरकार ने अपना सहयोग पेट्रोल से डीजल और कोयले से गैस की तरफ खिसका दिया है और इन्हें वैकल्पिक होने का तर्क दिया जा रहा है, लेकिन व्यावहार ऐसा नहीं है. रिपोर्ट की सहलेखिका शेलाग व्हाइटली Shelagh Whitley के मुताबिक, "डीजल ट्रांसपोर्ट सेक्टर में कोई समाधान नहीं बन सकता और न ही हम गैस और तेल का इस्तेमाल कर पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पा सकते हैं."

अब आगे क्या

रिपोर्ट में जर्मनी के ट्रांसपेरेंसी मॉडल की तारीफ की गई है साथ ही इसे ईयू के अन्य देशों के मुकाबले बेहतर बताया गया है. लेकिन सब्सिडी से जुड़ी जो सूचनायें जर्मनी की ओर से जारी की जाती है वह सिर्फ जलवायु लक्ष्यों से जुड़ी इसकी प्रतिबद्धताओं की ओर इशारा करती हैं जिस पर विशेषज्ञ पूरी तरह से भरोसा नहीं करते. विशेषज्ञ ट्रांसपेरेंसी मॉडल को आवश्यक तो मानते हैं लेकिन इसे अंतिम सत्य नहीं मान मानते.

Deutschland Proteste von Braunkohlegegnern
तस्वीर: DW/C. Winter

बहरहाल जीवाश्म ईंधन पर यूरोप की नीयत पर संदेह व्यक्त करती इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले संस्थान सीएएन और ओडीआई को जीवाश्म ईंधन सब्सिडी की  समाप्ति को लेकर आशावान जरूर है. इन संस्थाओं को उम्मीद है कि साल 2020 तक इन सब्सिडी को खत्म कर दिया जायेगा. साथ ही ये संस्थायें यह भी कहती हैं कि जीवाश्म ईंधन क्षेत्र पर निर्भरता को कम करने के लिये इससे जुड़े समुदाय और काम करने वाले लोगों को अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में खपाने के लिये आवश्यक कदम उठाने चाहिए. हालांकि जर्मनी की ओर से ऐसे कदम उठाये जा रहे हैं. लेकिन देश की ट्रांसपोर्ट सब्सिडी पर अब भी चिंता का सबब बनी हुई है.

रिपोर्ट-आइरीन बानोस रुइस