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जर्मन मशीन ढूंढेगी मंगल ग्रह पर पानी

५ अप्रैल २०१०

मंगल ग्रह और पृथ्वी के बीच समानताओं से अधिक असमानताएं हैं. वहां वैसा कोई जीवन नहीं है, जिस तरह के जीवन के हम पृथ्वी पर आदी हैं. वैज्ञानिक तब भी वे वहां मानवीय बस्तियां बसाने के अपने सपनों को छोड़ना नहीं चाहते.

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एक्सोमार्स का मॉडलतस्वीर: DW-TV

जर्मनी में काटलेनबुर्ग-लिंदाऊ के सौरमंडल अन्वेषण संबंधी माक्स प्लांक संस्थान के प्रो. हाराल्ड श्टाइनिंगर भी ऐसे ही एक वैज्ञानिक हैं. वे एक ऐसे मिशन के मुख्य वैज्ञानिक हैं, जिस के अधीन मंगल ग्रह की ज़मीन को जांचने-परखने के लिए वहां घूमफिर कर मिट्टी के नमूने लेने वाले दो उपकरणों के साथ एक अन्वेषण यान भेजा जाना है. इस मिशन को "एक्सोमार्स" नाम दिया गया हैः

"वहां हरे रंग के आदमियों के होने की उम्मीद वैसे भी कोई नहीं कर रहा है. बहुत हुआ, तो बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवाणु मिल सकते हैं," प्रो. श्टाइनिंगर का कहना है.

2018 में प्रक्षेपण

पैसे की कमी के कारण एक्सोमार्स के प्रक्षेपण को कई बार टाला जा चुका है. इस समय उसे 2018 में भेजने की बात चल रही है. एक्सोमार्स अपने साथ विभिन्न उपकरणों से भरे दो रोवर यानी विचरण वाहन भी ले जायेगा-- हुम्बोल्ट और पास्त्यौअर. हाराल्ड श्टाइनिंगर की टीम जो उपकरण बना रही है, उसका नाम हैः

"मोमा-- मार्सन ऑर्गैनिक मॉलेक्यूल्स एनेलाइज़र. यह एक गैस क्रोमैटोग्राफ़ मास स्पेक्ट्रोमीटर है, जो एक लेज़र मास स्पेक्ट्रोमीटर से जुड़ा है. उसे मालूम करना होगा कि मंगल ग्रह की मिट्टी में किस किस तरह के पदार्थ मिले हुए हैं."

मिट्टी की जांच से मिलेगा पानी का सुराग

मोमा इसे करेगा कैसे? प्रो. श्टाइनिंगर बताते हैं:

"मिट्टी के नमूने लिये जायेंगे. उन्हें गरम किया जायेगा. गरम करने पर जो कुछ भाप या गैस बन जायेगा, वह गैस क्रोमैटोग्राफ़ में जायेगा. वहां उसे उन पदार्थों के अनुसार छांटा जायेगा, जो उसमें मिले होंगे. मिट्टी के नमूनों में यदि सौ अलग अलग पदार्थ होंगे, तो गैस क्रोमैटोग्राफ़ से भी सौ अलग अलग पदार्थ बाहर आयेंगे. तब मास स्पेक्ट्रोमीटर उन्हें एक-एक कर देखेगा. इस तरह गैसीय पदार्थों की संरचना का पता चलेगा. लेज़र रिज़ोर्ब्शन स्पेक्ट्रोमीटर मिट्टी के नमूनों पर लेज़र किरणों की इस तरह बौछार करेगा कि बड़े आकार के अणु गैस बन कर मिट्टी से अलग हो जायेंगे और उन की अलग से पहचान हो सकेगी."

ESA - Exomars
एक्सोमार्स रोवर स्वयं भी केवल 190 किलो भारी होगा. मोमा इसके भीतर एक प्रयोगशाला के समान होगा.तस्वीर: ESA

मोमा स्वयं भी एक इंजीनियरिंग चुनौती है. उस का आकार तीस लीटर पानी के लिए आवश्यक जगह से अधिक नहीं होना चाहियेः

"मंगल ग्रह की परिक्रमा कर चुके यानों से उसकी ऊपरी सतह के कुछ ऐसे भी चित्र मिले हैं, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि सतह के चार-पांच सेंटीमीटर नीचे हमें कितना पानी मिल सकता है. लेकिन, यह कहना बहुत मुश्किल है कि इस पानी तक पहुंचना कितना सरल या कठिन है और वह खारा है या नहीं. इसलिए हमारा उपकरण ज़मीन में छेद कर पानी खोजेगा."

दो मीटर की गहराई तक खुदाई

मोमा

नाम का यह उपकरण पहली बार दो मीटर की गहराई तक की मंगल ग्रह की ज़मीन के नमूने लेगा. वह जो कुछ करेगा, उसका उद्देश्य बाद में भी एक्सोमार्स जैसी उड़ानों की तैयारी करने में और एक दिन वहां मनुष्य को भेजने में सहायक होना है.

अलग अलग कक्षाओं में रह कर सूर्य की परिक्रमा कर रहे मंगल और पृथ्वी के बीच की दूरी हमेशा घटती-बढ़ती रहती है. इस का परिणाम यह होगा कि जो भी अंतरिक्ष यात्री कभी वहां जायेंगे, पृथ्वी पर वापसी से पहले उन्हें एक साल तक वहां रहना पड़ सकता है. वे इतने लंबे समय तक के लिए अपनी ज़रूरत की सारी चीजें पृथ्वी पर से ले कर नहीं जा सकते. अतः वैज्ञानिकों को पता लगाना है कि ऐसे कौन से संसाधन मंगल ग्रह पर ही मिल जायेंगे, जिनसे अंतरिक्ष यात्रियों का काम चल सकता है. यह भी देखना होगा उन संसाधनों को कैसे पाया और इस्तेमाल करने लायक बनाया जा सकता है. इस बारे में काफ़ी अनिश्चय है, जैसा कि प्रो.श्टाइनिंगर बताते हैं:

BdT Mars neue Bilder von Mars Nordpol
मंगल ग्रह के उत्तरी ध्रुव के पास रेतीले मैदानतस्वीर: AP/NASA

"ऐसी दो उड़ानें पहले भी हो चुकी हैं जिन्होंने मंगल ग्रह पर कार्बनिक सामग्री का पता लगाने का प्रयास किया है, लेकिन केवल 10 सेंटीमीटर की गहराई तक ही. उन्हें कुछ नहीं मिला. ऐसी सामग्रियों की भी निश्चित रूप से ज़रूरत पड़ेगी, जिन का रिहायशी निर्माण सामग्री के तौर पर उपयोग हो सके. हो सकता है कि वहां सुरंगे खोदनी पड़ें, घर बनाने के लिए वहां की मिट्टी को जला कर ईंटें बनानी पड़ें. लेकिन सबसे ज़रूरी होगा पानी, क्योंकि मंगल ग्रह पर जाने वाले अंतरिक्ष यात्रियों को साल भर में जितना पानी चाहिये, उतना पानी पृथ्वी पर से नहीं ले जाया जा सकता. ऑक्सीजन पाना भी आसान नहीं होगा. उसे पानी के विद्युत-विश्लेषण से पैदा करना पड़ेगा. ऑक्सीजन और पानी, इन दोनों की सबसे पहले ज़रूरत पड़ेगी."

इस का मतलब है कि एक्सोमार्स को मंगल ग्रह पर मुख्य रूप से पानी ढूंढना है, जो शायद वहां की चट्टानी ज़मीन में छिपा हुआ है. हाराल्ड श्टाइनिंगर और उन के सहयोगियों को 2018 तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, क्योंकि उससे पहले उनकी मशीन मंगल ग्रह पर नहीं पहुंचेगी. इस के बाद ही पता चल पायेगा कि मोमा मंगल ग्रह की परिस्थितियों में काम करने के कितना अनुकूल है और उसे कहीं पानी मिला भी या नहीं.

रिपोर्ट- राम यादव

संपादन- महेश झा