1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

सिर्फ योजना नहीं, डेलिवरी पर जोर

१८ सितम्बर २०१४

भारत की नई सरकार के बीते 100 दिनों के कामकाज को कुछ ने संतोषजनक तो कुछ ने उम्दा बताया है. शुरुआती फैसलों को देखें तो मोदी सरकार के हालिया कदम जर्मनी समेत कई देशों से व्यापारिक संबंध बढ़ाने की ठोस संभावनाएं देते हैं.

https://p.dw.com/p/1DF1k
तस्वीर: Reuters/India's Press Information Bureau

सत्ता में आने के तीन महीने के भीतर ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेलवे में 100 फीसदी और रक्षा क्षेत्र में 49 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति दी है. इस कदम से दुनिया भर में निवेश की फायदेमंद संभावनाएं तलाशने वाले काफी उत्साहित दिख रहे हैं. हर बीतते दिन के साथ भारतीय बाजारों में विदेशी निवेशकों की दिलचस्पी बढ़ने का सबूत मजबूत होते रूपये और घरेलू बाजार में तेजी से भी मिल रहा है. भारत को निवेश के लिए एक आकर्षक ठिकाना बनाने के लिए हाल ही में केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों और फिक्की जैसे कारोबारी संगठनों ने साथ मिलकर 'इन्वेस्ट इंडिया' नाम की एक साझा कंपनी बनाई गई है. इनका मकसद इच्छुक विदेशी निवेशकों को देश में निवेश की प्रक्रिया में सहूलियत मुहैया कराना है.

दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी ने "कम, मेक इन इंडिया" का नारा देकर देश की उत्पादकता बढ़ाने का बड़ा सपना देखा है. इसके लिए जापान, चीन और जर्मनी जैसे विकसित देशों का भारत में अपना नेटवर्क स्थापित करना और उसका विस्तार करना बहुत जरूरी है. यूरोप की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था जर्मनी के भारत के साथ सदियों से निकट व्यापारिक संबंध रहे हैं. फिलहाल जर्मनी में दो सौ से ज्यादा भारतीय कंपनियां सक्रिय हैं. जब भारत अगले साल हनोवर में होने वाले विश्व प्रसिद्ध औद्योगिक मेले में पार्टनर देश के तौर पर शिरकत करेगा तो कई और नई राहें खुल सकेंगी.

मैनुफैक्चरिंग और उच्च तकनीक वाले परंपरागत क्षेत्रों के अलावा अब छोटे और मंझोले आकार की जर्मन कंपनियों की भारत में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए कई कोशिशें हो रही हैं. मगर तमाम आकर्षक योजनाओं के बावजूद विदेशी कंपनियों को भारत में कभी उलझाऊ टैक्स नीतियों तो कभी अनुमति मिलने में देरी के चलते परेशानियां पेश आती हैं. इसके अलावा लाजवाब जर्मन इंजीनियरिंग से तैयार की गई विश्व स्तरीय मशीनों और दूसरे उत्पादों की ऊंची कीमत के कारण भारतीय बाजार में खरीदार मिलने में मुश्किल होती है.

जर्मनी में भारत के राजदूत विजय गोखले का मानना है कि अगर इन उत्पादों की गुणवत्ता से समझौता ना करते हुए भी इनकी कीमतें नीचे लाई जा सकें तो आपसी व्यापार में बड़ी बढ़ोत्तरी दर्ज की जा सकेगी. गोखले ने बताया कि भारत में देश भर के लिए सिंगल गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स और ट्रांसफर टैक्स पर विचार चल रहा है जिससे विदेशी कंपनियों को व्यापार में काफी आसानी होगी.

2013 में जर्मनी की कुल जीडीपी में करीब 22 फीसदी का योगदान करने वाले नार्थ राइन-वेस्टफेलिया प्रांत के वाणिज्य मंत्री गारेल्ट डुइन का भी मानना है कि अगर मोदी सरकार टैक्स के मामले में सरल और दूरगामी कानून बनाती है तो इससे द्विपक्षीय व्यापार को बल मिलेगा. डुइन ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा कि भारत में बहुमत से चुनी गई एक पार्टी की सरकार को देश भर के लिए समान नीतियां बनाने में आसानी होनी चाहिए. डुइन ने कहा, "हमारे यहां की कई कंपनियों को ऑटोमोटिव सेक्टर, अक्षय ऊर्जा के अलावा पानी और कचरे से निपटने के मामले में विशेषज्ञता हासिल है. मुझे लगता है कि इन क्षेत्रों में भारतीय कंपनियों के साथ सहयोग करने की काफी संभावनाएं हैं."

डुइन ने यह साफ किया कि बाजार की मांगों के दबाव में आकर कभी भी जर्मन उत्पादों की गुणवत्ता से समझौता नहीं किया जाएगा. जर्मनी में तैयार हुए उच्च इंजीनियरिंग वाले उत्पादों की कीमत चुकाने के लिए पूरी दुनिया में लोग तैयार होते हैं. मगर भारत में चीजों की ऊंची कीमत एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है और इस मामले में चीन से आने वाले उत्पादों के मुकाबले जर्मन चीजों के दाम आसमान छूते दिखते हैं.

पूरे यूरोप में जर्मनी ही भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. भारत में सीधे विदेशी निवेश के मामले में जर्मनी दुनिया के चोटी के देशों में शामिल है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार से गुजरात की ही तर्ज पर पूरे देश में व्यापारी और निवेशक समुदाय के लिए सकारात्मक माहौल बनाने की उम्मीदें की जा रही हैं. यूरोपीय संघ और भारत के बीच काफी वक्त से लटकते आ रहे मुक्त व्यापार समझौते पर अगर जल्द ही सहमति बन जाती है तो उससे भी द्विपक्षीय व्यापारिक संबंधों को नई ऊंचाईयां मिलेंगी.

रिपोर्ट: ऋतिका राय

संपादन: महेश झा