1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

जर्मनी में भेदभाव से निपटने के लिए नया प्रोजेक्ट

७ जुलाई २०१०

जर्मनी में अल्पसंख्यकों को कई बार नौकरी ढूंढने में दिक्कतें पेश आती हैं. यूं तो ज्यादातर कंपनियां विविधता को अपनी एक ताकत के रूप में देखती हैं. फिर भी कई मामलों में अप्लीकेशन की जांच में निष्पक्षता नहीं रह पाती.

https://p.dw.com/p/OCSf
नौकरी पाना आसान नहींतस्वीर: AP

जर्मनी में तुर्क मूल का कोई व्यक्ति अगर नौकरी के लिए अप्लाई करता है तो जर्मन व्यक्ति की तुलना में उसे जवाब मिलने की उम्मीद 14 फीसदी कम होती है. जर्मनी में भेदभाव विरोधी एजेंसी के मुताबिक पूर्वाग्रह और खराब मैनेजमेंट का असर यह होता है कि बहुत से मामलों में अल्पसंख्यकों को इंटरव्यू के लिए बुलाया हीं नहीं जाता.

Deutsche in der Schweiz
तस्वीर: picture-alliance/dpa

इस समस्या से निपटने के लिए एक नए प्रोजेक्ट का सहारा लिया जा रहा है जिसमें नौकरी के लिए आवेदन करने वाले को बेनाम रखा जाएगा और फिर तय किया जाएगा कि उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया जाए या नहीं.

इस प्रोजेक्ट के जरिए एंटी डिस्क्रिमिनेशन एजेंसी जर्मनी में वर्कफोर्स की पृष्ठभूमि में विविधता नया कानून लाए बगैर लाना चाहती है. इसके तहत प्रोक्टर एंड गैम्बल, लोरियाल सहित पांच बड़ी कंपनियां अगले एक साल के लिए बेनाम अप्लीकेशन को जांचने के लिए तैयार हो गए हैं.

यानी आवेदक की पृष्ठभूमि जाने बगैर ही उसे इंटरव्यू के लिए बुलाने या नौकरी पर रखने का फैसला लिया जाएगा. इसके जरिए किसी आवेदक की योग्यताओं के आधार पर ही फैसला लिया जाएगा, अन्य किसी कारणों से नहीं.

जर्मनी में नौकरी के लिए अप्लीकेशन में फोटो, जन्मतिथि, पारिवारिक जानकारी और राष्ट्रीयता का उल्लेख करना होता है. एंटी डिस्क्रिमिनेशन एजेंसी की निदेशक क्रिस्टीन लुडर्स के मुताबिक यह प्रक्रिया पिछले कई सालों से चलन में है और इसमें बदलाव नहीं किया गया है.

डॉयचे वेले को क्रिस्टीन ने बताया कि कई बार ऐसा होता है कि अगर दो बच्चों की मां किसी नौकरी के लिए आवेदन देती है तो उसे इंटरव्यू के लिए ही नहीं बुलाया जाता. जर्मनी इस तरह से योग्य लोगों को नहीं खो सकता.

एक रिपोर्ट में पाया गया कि नैचुरल साइंस में डॉक्टोरल डिग्री पाने वाले एक व्यक्ति को 230 अप्लीकेशन के बावजूद उन्हें एक बार भी सफलता नहीं मिली. हताशा में उन्होंने अपना नाम अली से एलेक्स कर लिया जो उनकी पत्नी का आखिरी नाम है.

क्रिस्टीन का मानना है कि ऐसी समस्या से निपटने और पूरी प्रक्रिया को नया रूप देने से जर्मनी का ही फायदा होगा. वहीं इस प्रोजेक्ट में हिस्सा ले रही कंपनियों का मानना है कि इससे उनकी वर्कफोर्स में विविधता आएगी और उनके उत्पादों की अपील बढ़ेगी.

रिपोर्ट: एजेंसियां/एस गौड़

संपादन: आभा एम