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जर्मनी में खड़ी हुई आंसुओं की दीवार

८ जुलाई २०१०

कभी बर्लिन की दीवार ने एकीकृत जर्मनी को विश्वकप नहीं जीतने दिया और इस बार सेमीफाइनल की हार के बाद जर्मनी तो एक है लेकिन आंसुओं की दीवार खड़ी हो गई है. उम्मीद और जोश में भरी जर्मन जनता सदमे में चली गई है. हर तरफ उदासी.

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तस्वीर: AP

बीयर, मस्ती और झूम झाम के बीच बुधवार रात अचानक जश्न थम गया. यूं तो जर्मनी की युवा टीम से शुरू में किसी को ज्यादा उम्मीद नहीं थी. लेकिन जब से टीम ने परंपरागत प्रतिद्वंद्वी इंग्लैंड और ताकतवर अर्जेंटीना पर चार चार गोल दागे थे, लोगों को लगने लगा था कि 20 साल बाद शायद इस बार फिर वर्ल्ड कप जर्मनी ही आएगा.

Flash-Galerie Fußball WM 2010 Südafrika Halbfinale Deutschland Spanien
तस्वीर: AP

लेकिन इकलौते गोल ने मानों करोड़ों जर्मनों की छाती पर घूंसा जड़ दिया हो. राजधानी बर्लिन में लगभग साढ़े तीन लाख लोग शानदार मौसम के बीच बाहर खुले मैदान में बड़े पर्दे पर मैच देख रहे थे. बच्चे बूढ़े और जवान.. सब एक साथ. लेकिन इस गोल ने सबको एक साथ रुला भी दिया. बच्चे जहां हिचकियां ले लेकर सिसक उठे, वहीं बुजुर्गों की आंखें भी नम हो गईं. कोई कुछ बोलने को तैयार न था.

रोनाल्ड फ्रित्श बर्लिन में खुली आसमान के नीचे मैच देखने पहुंचे थे. गमगीन और मायूस फ्रित्श कहते हैं, "जर्मन टीम हर बार की तरह मजबूत नहीं दिखी. आम तौर पर वे इससे कहीं बेहतर खेलते हैं. लेकिन इस बार वे नहीं कर पाए. स्पेन के खिलाड़ी बिलकुल नियंत्रण लिए बैठे थे."

कुछ जर्मन तो मान बैठे थे कि फाइनल में हॉलैंड से भिड़ना है. लेकिन स्पेन के एक गोल ने उनके सपने तोड़ दिए. बर्लिन में ही पैट्रिक डेन्के भी मिले. वह कहते हैं, "बिलकुल बेकार. स्पेन बहुत अच्छा खेला. मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है. लेकिन वे तो दौड़े ही नहीं, वे बहुत धीमे थे." जर्मनी लगातार तीसरी बार सेमीफाइनल में पहुंच कर भी कप से दूर रह गया.

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नाजी इतिहास की वजह से आम तौर पर जर्मनी में राष्ट्रभक्ति की भावना जाहिर नहीं की जाती. लेकिन इस बार के वर्ल्ड कप में बिलकुल अलग माहौल था. लोगों ने मैच वाले दिन जर्मन फुटबॉल टीम की जर्सी पहन रखी थी. पूरे वर्ल्ड कप के दौरान घरों पर और गाड़ियों में जर्मन तिरंगा लहरा रहा था. कुछ लोगों ने तो ऊंची ऊंची इमारतों में भी काले, पीले और लाल रंग के झंडे फहरा रखे थे. हर जीत के साथ झंडों की संख्या बढ़ती जा रही थी. लेकिन एक गोल ने इन सब पर पानी फेर दिया.

मैच के दौरान पूरे जर्मनी में बाहर निकल कर देखने वालों के मुंह से ऊऊऊह, ओओओह. जैसे शब्द सुनाई देते रहे. लेकिन कभी भी वह खुशी से झूम नहीं पाए. बस एक बार आह भर कर रह गए.

म्यूनिख के ओलंपिक स्टेडियम में भारी भीड़ जमा थी. 1974 में सात जुलाई को ही जर्मनी ने हॉलैंड को हरा कर दूसरी बार वर्ल्ड कप जीता था. इसे अच्छा शगुन माना जा रहा था. लेकिन एक गोल के बाद सब कुछ बदल गया. लोग फौरन स्टेडियम छोड़ कर जाने लगे. कोई किसी की तरह मायूसी भरे चेहरे से देखता भी, तो दूसरा मुंह फेर कर अपनी राह निकल लेता. मानों आंखें मिलाने को कोई तैयार ही नहीं था. बीयर के आधे खाली गिलास टेबुलों पर ही छोड़ दिए गए और ढोल नगाड़े खामोश हो गए और वुवुजेला की आवाजें थम गईं.

हैमबर्ग की सड़कों पर लोग बरबस छलक आए आंसुओं को बांधने की कोशिश करते दिखे. कुछ तो बांध पाए, कुछ ने ढलक जाने दिया. लुसिया पर्शेके बड़ी उम्मीद से अपने दोस्तों के साथ मैच देखने आई थीं. लेकिन हारने के बाद निराश हैं, "यह तो किसी अंतिम संस्कार की तरह लग रहा है. मेरा कलेजा छलनी हुआ जा रहा है."

जर्मनी तीन बार वर्ल्ड कप जीत चुका है लेकिन एकीकृत जर्मनी के रूप में एक बार भी नहीं. डरबन में आखिरी सिटी बजे पूरा घंटा बीत चुका है. लेकिन सात साल की बच्ची की सिसकियां अब भी नहीं थमी हैं. वह अपने पिता से पूछ रही है, "क्या हम सचमुच हार गए हैं."

रिपोर्टः एजेंसियां/ए जमाल

संपादनः एम गोपालकृष्णन